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प्रास्ताविकम्
कार्य प्रवृत्त नहीं होगा और 'कालापकः' प्रयोग बनेगा । कलाप या कलापक शब्द कातन्त्र का ही एक नामान्तर है । महर्षि पतञ्जलि द्वारा दर्शित होने से इनका रचनाकाल पतञ्जलि से पूर्व ही मानना पड़ेगा । युधिष्ठिर मीमांसक का अभिमत है कि पतञ्जलि का काल विक्रम से २००० वर्ष पूर्व है । यह काल यदि वस्तुतः सिद्ध हो जाए तो कातन्त्र के रचयिता शर्ववर्मा का काल विक्रमपूर्व २००० वर्षों से भी पूर्ववर्ती मानना पड़ेगा | यदि अधिक प्रचलित काल = यीशुपूर्व १५० वर्ष भी मान्य हो तो भी कम से कम शर्ववर्मा का काल यीशुपूर्व लगभग २०० वर्ष तो मानना ही होगा । सामान्य धारणा के अनुसार कातन्त्र का रचनाकाल यीशवीय सन् के प्रारम्भिक वर्षों में दिखाया जाता है ।
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आन्ध्रदेशीय राजा सातवाहन के सभापण्डित होने के कारण शर्ववर्मा का देश आन्ध्र (या महाराष्ट्र) कहा जा सकता है । इस विषय में विशेष विवरण प्राप्त न होने से यथार्थ जन्मस्थान और उनके द्वारा किए गए अन्य कार्यों के सम्बन्ध में निश्चयेन कुछ भी कहना संभव नहीं है ।
कृत् सूत्रों की रचना और आचार्य वररुचि
वररुचि कात्यायन ने कातन्त्र के अनुसार कृत्सूत्रों की रचना की थी । आचार्य शर्ववर्मा ने इनकी रचना इसलिए नहीं की थी कि उनके मत में 'वृक्ष' आदि शब्दों की ही तरह कृत्प्रत्ययान्त अन्य शब्द भी रूढ थे । इसका स्पष्ट निर्देश दुर्गसिंह ने अपनी कृत्प्रकरणवृत्ति के प्रारम्भ में किया है
वृक्षादिवदमी रूढाः कृतिना न कृताः कृतः ।
'कात्यायनेन ते सृष्टा विबुद्धिप्रतिबुद्धये ॥
कात्यायन नाम के अनेक आचार्य संस्कृतसाहित्य में उपलब्ध होते हैं । पाणिनीय व्याकरण के वार्त्तिककार तथा शुक्लयजुः प्रातिशाख्यकार भी कात्यायन ही थे । कविराज सुषेणविद्याभूषण ने कातन्त्र के एकदेशीय आचार्य को वररुचि कहा है । अतः कृत्सूत्रों के रचयिता वररुचि कात्यायन कहे जा सकते हैं । कविराज ने 'कैश्चित् ' शब्द की व्याख्या में कहा है कि कातन्त्र - व्याकरण को जानने वाले सभी विद्वान् 'कातन्त्र' शब्द से ग्राह्य हैं। उसके एकदेशीय आचार्य वररुचि माने जाते हैं- “ कैश्चित् कातन्त्रैकदेशीयैरिति पञ्जी । कातन्त्र शब्दोऽत्र सकलवैयाकरणपरः । कातन्त्रं ये विदन्ति सूरय इत्यर्थेऽण् - प्रत्ययविधानात् तदेकदेशीयैर्वररुचिप्रभृतिभिरित्यर्थः " (क० च० २ । १ । ४१) ।