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कातन्त्रव्याकरणम्
[समीक्षा]
‘अग्निः+ गच्छति, अग्निः + अत्र, पटुः + अत्र' इस अवस्था में कातन्त्रकार विसर्ग को रकारादेश करते हैं, परन्तु पाणिनि विसर्गादेश से पूर्व ही सुप्रत्ययस्थ स् को रु आदेश करके ‘अग्निर्गच्छति, अग्निरत्र, पटुरत्र' आदि शब्दरूप सिद्ध करते हैं । इससे ऐसा कहा जा सकता है कि कातन्त्रकार को इस प्रकार की सन्धि पदनिष्पत्ति के बाद ही करनी अभीष्ट थी, जबकि पाणिनि को पदसिद्धि से पूर्व ।
[रूपसिद्धि]
१. अग्निर्गच्छति । अग्निः + गच्छति । नामिसंज्ञक वर्ण इ से परवर्ती तथा स्वर वर्ण अ है पर में जिसके ऐसे घोषसंज्ञक वर्ण गु के पर में रहने पर विसर्ग को रेफ ।
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२. अग्निरत्र । अग्निः + अत्र | नामिसंज्ञक वर्ण इ से परवर्ती तथा स्वर - घोषसंज्ञक वर्ण तू से पूर्ववर्ती विसर्ग को रेफ आदेश |
३. पटुर्वदति । पटुः + वदति । नामिसंज्ञक वर्ण उसे परवर्ती तथा स्वर वर्ण अ है पर में जिसके ऐसे घोषसंज्ञक वर्ण व् से पूर्ववर्ती विसर्ग को रेफ आदेश | ४. पटुरत्र । पटुः + अत्र । नामिसंज्ञक वर्ण उ से परवर्ती तथा स्वरवर्ण अ घोषसंज्ञक वर्ण तू से पूर्ववर्ती विसर्ग को रेफ आदेश ||७४ |
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७५. रप्रकृतिरनामिपरोऽपि ( १।५।१४)
[सूत्रार्थ]
रेफ - प्रकृति वाला विसर्ग रकार को प्राप्त होता है, यदि वह नामिसंज्ञक या उनसे भिन्न वर्णों से परवर्ती हो और उस विसर्ग के बाद घोषसंज्ञक वर्ण, स्वर या अघोषसंज्ञक वर्ण हों तो ।। ७५ ।
[दु०वृ०]
रेफ प्रकृतिविसर्जनीयो नामिनः परोऽनामिनः परोऽपि घोषवत्स्वरपरोऽपि रमाद्यते । गीर्पतिः, गीःपतिर्वा । धूर्पतिः धूः पतिर्वा । स्वरघोषवतोर्नित्यम् - पितरत्र, पितर्यातः । अरेफप्रकृतिरपि - हे प्रचेता राजन्, हे प्रचेतो राजन्निति वा । उषर्बुधः ।