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सन्धिप्रकरणे पञ्चमो विसर्जनीयपादः
२६५ स्तेन यदुच्चारणं तेन कृतम् इत्यर्थः । मूर्खास्तु- क्रियते इति करणं शब्दः । कर्मणि युट् ; स्थानेन करणस्य शैथिल्यं स्थानकरणशैथिल्यम् । तत् किम्भूतम् उच्चारणे कृतमित्यर्थ इत्याहुः ।।७१।
[समीक्षा]
(१) 'देवाः + आहुः, भोः+ अत्र' इस अवस्था में कातन्त्रकार विसर्ग का लोप तथा यकारादेश करके 'देवा आहुः, देवायाहुः । भो अत्र, भोयत्र' शब्दरूप निष्पन्न करते हैं । पाणिनि के अनुसार तो यहाँ स् को रु, रु को य् तथा य् का वैकल्पिक लोप होता है। इस प्रकार पाणिनीय प्रक्रिया में गौरव स्पष्ट है |
(२) इस सूत्र में पठित 'भो' शब्द आमन्त्रणार्थक ओकारान्त शब्दों का उपलक्षण माना जाता है, जिससे 'भगो, अघो' शब्दों में भी निर्दिष्ट विधि प्रवृत्त होती है |
(३) कुछ व्याख्याकारों या आचार्यों का मत संभवतः रहा होगा कि ओकारान्त शब्दों से विसर्ग का लोप नित्य होता है । उनके मत का खण्डन करने के उद्देश्य से सूत्र में ‘एवमेव' शब्द पढ़ा गया है । जिसके फलस्वरूप “अपरो लोप्योऽन्यस्वरे यं वा" (१।५।९) इस पूर्वोक्त सूत्र में निर्दिष्ट दोनों विधियाँ यथावत् होती हैं । अर्थाद् आकार- भोशब्दों से परवर्ती विसर्ग का वैकल्पिक लोप तथा पक्ष में यकारादेश होता है।
[रूपसिद्धि]
१. देवा आहुः - देवायाहुः । देवाः + आहुः । आकार से परवर्ती तथा स्वर वर्ण आकार के पर में रहने पर विसर्ग का लोप = देवा आहुः । विसर्ग को यकारादेश = देवायाहुः।
२. भो अत्र, भोयत्र । भोः + अत्र | भो से परवर्ती तथा स्वर वर्ण अकार के पर में रहने पर विसर्ग का लोप = भो अत्र । विसर्ग को यकारादेश = भोयत्र ||७१।
७२. घोषवति लोपम् (१।५।११) [सूत्रार्थ]
आकार तथा भोशब्द से परवर्ती विसर्ग का घोषवान् वर्ण के पर में रहने पर लोप होता है ।।७२।