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सन्धिप्रकरणे चतुर्थो वर्गपादः [समीक्षा]
कलाप व्याकरण के अनुसार पद के अन्त में वर्तमान वर्गीय प्रथम वर्गों (क् च ट त् प्) के स्थान में क्रमशः तृतीय वर्ण (ग् ज् ड् द् ब्) हो जाते हैं, यदि स्वरसंज्ञक वर्ण (अ आ, इ ई, ऋ ऋ, लू लू, ए ऐ, ओ औ) अथवा घोषसंज्ञक वर्ण (ग् घ् ङ्, ज् झ् ञ्, ड् द् ण्, द् ध् न्, ब् भ् म्, य र ल व् ह्) पर में रहें तो।
पाणिनीय व्याकरण के अनुसार "झलां जशोऽन्ते" (८।२।३९) सूत्र प्रवृत्त होता है । इसके अर्थ को जानने के लिए सर्वप्रथम झल्-जश् 'प्रत्याहारों का सम्यग् ज्ञान तथा स्थान-प्रयत्न-विवेक अपेक्षित होता है, और इस प्रकार पाणिनीय प्रक्रिया में अधिक कृत्रिमता के कारण दुर्बोधता अधिक प्रतीत होती है, जबकि कलापीय प्रक्रिया में लोकव्यवहार का आश्रय लिए जाने से सरलता हो सकती है।
[रूपसिद्धि
१. वागत्र | 'वाक्+ अत्र' । यहाँ पदान्तस्थ 'क्' वर्ण कवर्गीय प्रथम वर्ण है, उससे पर में 'अ' स्वर विद्यमान है । अतः प्रकृत सूत्र से क् के स्थान में ग् आदेश तथा ग् का अ-स्वर के साथ सम्मेलन किए जाने पर 'वागत्र' प्रयोग निष्पन्न होता है।
२. षड् गच्छन्ति । 'षट् + गच्छन्ति' । यहाँ टवर्गीय प्रथम वर्ण 'ट' पद के अन्त में स्थित है और घोषसंज्ञक 'ग' परवर्ती है। अतः उसके निमित्त से 'ट्' के स्थान में ड् आदेश उपपन्न होता है ।।४६।
४७. पञ्चमे पञ्चमांस्तृतीयान् नवा (१।४।२) [सूत्रार्थ]
पदान्तस्थ वर्गीय प्रथम वर्गों के स्थान में विकल्प से पञ्चम तथा तृतीय वर्ण होते हैं, वर्गीय पञ्चम वर्गों के परवर्ती होने पर ।। ४७।
१. वर्णसमाम्नाय सूत्र (१४), प्रत्याहारविधायक तथा इत्-लोप-विधायक सूत्रों के ज्ञान के अनन्तर ही किसी प्रत्याहार का बोध होता है | २. झल् २४ वर्ण हैं जब कि जश् केवल ५ ही | स्थान किसी भी वर्ग के सभी वर्गों का एक ही होता है । स्पृष्ट प्रयल क् से लेकर म् तक के सभी वर्गों का है । अतः बाह्य प्रयत्न अल्पप्राण की समानता से प्रथम के स्थान में तथा संवार-नाद - घोष की समानता से चतुर्थ के स्थान में जश् होता है।