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कातन्त्रव्याकरणम्
[रूपसिद्धि]
१. नायकः। नै+ अकः (ऐ+ अ) । असवर्ण अ के पर में रहने पर पूर्ववर्ती ऐ के स्थान में आय् आदेश तथा परवर्ती अ के लोप का अभाव |
२. रायैन्द्री । रै+ ऐन्द्री (ऐ+ ऐ) । असवर्ण ऐ के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती ऐ के स्थान में आय् आदेश एवं परवर्ती ऐ के लोप का अभाव ||३६।
३६. ओ अव् (१।२।१४) [सूत्रार्थ]
असवर्ण स्वर के पर में रहने पर पूर्ववर्ती ओ के स्थान में अव् आदेश होता है, परन्तु परवर्ती वर्ण का लोप नहीं होता ।।३७।
[दु० वृ०]
ओकारोऽव् भवति असवणे, न च परो लोप्यः । लवणम्, पटवोतुः ।।३७। [वि० प०]
ओ० | पटवोतुरिति । पटुशब्दाद् "आमन्त्रणे च" (२।४।८) इति सिः, "हस्वनदी०" (२।१।७१) इत्यादिना सेर्लोपः । “सम्बुद्धौ च" (२।१।५६) इत्युकारस्यौकारः ||३७।
[समीक्षा]
'लो + अनम्, पटो + ओतुः' इस दशा में कलाप तथा पाणिनीय दोनों के ही अनुसार ओ के स्थान में अव् आदेश प्रवृत्त होता है, परन्तु कलापव्याकरण की सूत्ररचनापद्धति में जो सरलता सन्निहित है, तदर्थ सूत्र -सं० ३६ की समीक्षा द्रष्टव्य है ।।३७।
[रूपसिद्धि
१. लवणम् । लो + अनम् (ओ + अ)। परवर्ती अ के असवर्ण स्वर होने पर पूर्ववर्ती ओ के स्थान में अव् आदेश तथा परवर्ती वर्ण के लोप का अभाव |
२. पटवोतुः। पटो + ओतुः (ओ + ओ)। असवर्ण स्वर ओ के पर में रहने पर पूर्ववर्ती ओ के स्थान में अव् आदेश, अथ च परवर्ती ओ के लोप का अभाव ||३७।