________________
सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः
१५७ २. अग्नये। अग्ने + ए (ए+ए) । यहाँ ए के पर में होने पर भी पूर्ववर्ती ए के स्थान में अय् आदेश होता है तथा परवर्ती ए का लोप नहीं होता है ।
[विशेष]
यहाँ ‘असवर्ण' की अनुवृत्ति करने पर 'अग्नये' में सूत्र प्रवृत्त नहीं होना चाहिए, क्योंकि पर में यहाँ ए ही है और इसीलिए कुछ व्याख्याकार ‘असवर्ण' शब्द की अनुवृत्ति नहीं भी मानते हैं। कुछ व्याख्याकार कहते हैं कि 'असवर्ण' की अनुवृत्ति न होने पर यह आदेश अनिमित्तक हो जाएगा । ऐसा न हो सके, अतः असवर्णानुवृत्ति करनी चाहिए । असवर्णानुवृत्ति करने पर 'अग्नये' में जो यह आशङ्का होती है कि यहाँ तो जिस ए को अय् आदेश करना है उससे परवर्ती वर्ण भी 'ए' ही है। इसके समाधानार्थ यह समझना चाहिए कि 'ए' आदि ४ सन्ध्यक्षर वर्गों की सवर्णसंज्ञा ही नहीं होती, क्योंकि सवर्णसंज्ञा तो समानसंज्ञक वर्गों की ही होती है और समानसंज्ञा अ से लेकर लू पर्यन्त दश वर्गों की ही निर्दिष्ट है- “दश समानाः" (१1१1३) ।।३५।
३६. ऐ आय् (१।२।१३)
[सूत्रार्थ]
असवर्ण वर्ण के परवर्ती रहने पर पूर्ववर्ती 'ऐ' के स्थान में 'आय' आदेश होता है, परन्तु परवर्ती वर्ण का लोप नहीं होता ||३६।
[दु० वृ०] ऐकार आय् भवति असवणे, न च परो लोप्यः । नायकः। रायैन्द्री ।।३६। [वि० प०] ऐ०। रायैन्द्रीति राया ऐन्द्रीति विग्रहः ।।३६। [समीक्षा]
'नै+अकः, रै+ऐन्द्री' इस अवस्था में ऐ के स्थान में आय आदेश दोनों ही व्याकरणों के अनुसार होता है, परन्तु सूत्ररचनापद्धति से कलाप में जो सरलता उपपन्न होती है, उसके लिए सूत्र-सं० ३६ की समीक्षा द्रष्टव्य है।