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कातन्त्रव्याकरणम्
२. सेयम्। 'सा + इयम्' इस दशा में सकारोत्तरवर्ती आ के स्थान में 'ए' आदेश तथा उत्तरवर्ती 'इ' का लोप करना पड़ता है | इस विधि के 'रमेशः, सुरेशः, महेशः' आदि भी उदाहरण प्रसिद्ध हैं ।।२५।
२६. उवणे ओ (१।२।३) [सूत्रार्थ]
उवर्ण के पर में होने पर पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'ओ' आदेश होता है तथा परवर्ती उवर्ण का लोप ।।२६।
[दु० वृ०] अवर्ण उवणे परे ओर्भवति परश्च लोपमापद्यते । तवोहनम्, गङ्गोदकम् ।।२६।
[अत्र व्याख्यान्तरं न प्राप्यते । कातन्त्ररूपमालायां ‘गन्धोदकम्, मालोढा' इति उदाहरणद्वयं लभ्यते]।
[समीक्षा
इस सूत्र पर दुर्गटीका, विवरणपञ्जिका तथा कलापचन्द्र नामक व्याख्याएँ नहीं हैं । पाणिनि ने 'ओ' रूप गुणविधि की व्यवस्था दो वर्गों के स्थान में की है, जबकि शर्ववर्मा ने केवल अवर्ण के स्थान में । इस विधि में परवर्ती उवर्ण का लोप हो जाता है । स्वरों के स्वतन्त्र होने के कारण दो स्वरों के स्थान में एक स्वरादेश की अपेक्षा एक ही स्वर के स्थान में ओ-आदेश अधिक समीचीन प्रतीत होता है।
[रूपसिद्धि]
१. तवोहनम् । तव + ऊहनम् (अ+ऊ)। वकारोत्तरवर्ती अ के स्थान में ओ तथा परवर्ती ऊ का लोप ।
२. गङ्गोदकम् । गङ्गा + उदकम् = (आ+उ)। द्वितीय गकारोत्तरवर्ती आ के स्थान में ओ तथा परवर्ती उ का लोप । 'सहोदरः, मनोरथः' आदि उदाहरण भी द्रष्टव्य हैं ।।२६।