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सन्धिप्रकरणे द्वितीयः समानपादः
१३१ ननु किमर्थमवर्णग्रहणम्, पारिशेष्यादवर्ण एव कार्टी स्यादिति, अथ व्यञ्जनमपि कार्यि स्यादिति चेत्, न । समानानुवर्तनात् परत्वात् श्रुतत्वाच्च इवणे परे अवर्ण एकारो भवतीति प्रतिपद्यते, इवर्णादौ यत्वादिविधानस्य चरितार्थत्वादेव न भविष्यति ? सत्यम्, तदा सुखार्थम् ।।२५।
[समीक्षा]
पाणिनीय व्याकरण के अनुसार "एकः पूर्वपरयोः" (पा० ६।१।७५) के अधिकार में "आद् गुणः" (पा० ६।१।८७) से गुणादेश प्रवृत्त होता है । जिससे 'रमा + ईशः' या 'सुर + ईशः' इस स्थिति में पूर्ववर्ती अवर्ण तथा परवर्ती इवर्ण इन दोनों के ही स्थान में एक एकारादेश निष्पन्न होता है । शर्ववर्मा ने तो दीर्घविधि की तरह गुणविधि भी एक वर्ण के ही स्थान में निर्दिष्ट की है। तदनुसार 'तव + ईहा' तथा 'सा + इयम्' इस अवस्था में पूर्ववर्ती अवर्ण के ही स्थान में एकारादेश होने के अनन्तर परवर्ती इवर्ण का लोप हो जाता है और इस प्रकार 'तवेहा, सेयम्' शब्दरूप निष्पन्न होते हैं । यहाँ पर भी सूत्र २४ की समीक्षा की तरह यह कहा जा सकता है कि स्वरों के स्वतन्त्र होने के कारण एक ही स्वर का आदेश किया जाना समीचीन है, दो स्वरों के स्थान में एक स्वरादेश करने की अपेक्षा।
[विशेष]
सूत्रपठित 'वर्ण' शब्द का अर्थ सवर्ण लिया जाता है । इसके लिए परिभाषावचन भी है – 'वर्णग्रहणे सवर्णग्रहणम्' (सं० बौ० वै०, पृ० २२५)। सूत्र-संख्या २४ में पठित चकार का अधिकार इस सूत्र में भी अनुवृत्त होने के कारण यहाँ अनुक्त का भी समुच्चय अभीष्ट है । इससे कहीं कहीं पर पूर्ववर्ती अवर्ण का भी लोप हो जाता है । जैसे- हल + ईषा = हलीषा, लाङ्गल + ईषा = लागलीषा, मनस् + ईषा = मनीषा | 'मनीषा' में सलोप भी करना पड़ता है।
[रूपसिद्धि]
१. तवेहा। 'तव + ईहा' इस अवस्था में वकारोत्तरवर्ती अकार से ईहाशब्दस्थ ईकार पर में उपस्थित है । अतः 'अ' के स्थान में इस सूत्र से 'ए' आदेश तथा परवर्ती 'ई' वर्ण का लोप होकर 'तवेहा' शब्दरूप निष्पन्न होता है ।