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सन्धिप्रकरणे प्रथमः सज्ञापादः
१११ "अवर्ण इवणे ए" (१।२।२) इत्यादिकं तु 'अ-इ' इत्यादौ केवलेऽपि चरितार्थम्, अतो न विश्लेषज्ञापकं भवितुमर्हति ।।२२।
[समीक्षा]
'सम्मिलित वर्गों का विश्लेषण क्रम से ही करना चाहिए, अतिक्रमण करके नहीं' - इस लोकप्रसिद्ध अर्थ का निर्देश कलापकार ने सूत्र द्वारा किया है"अनतिक्रमयन् विश्लेषयेत्' । जैसे - “वैयाकरण' शब्द में व् और ऐ मिले हुए हैं । यहाँ 'ऐ' वर्ण की उपस्थिति से पूर्व 'व्+याकरण' शब्दरूप था, 'ऐ' का आगम होने पर 'वैयाकरण' शब्दरूप निष्पन्न हुआ | इसी प्रकार ‘उच्चकैः' में भी ‘उच्च्+ऐस्' इस प्रकार वर्णविश्लेषण करते हैं । इसके अनन्तर 'अक्' आगम होने पर 'उच्चकैः' शब्द सिद्ध होता है।
पाणिनि ने इस लोकप्रसिद्ध अर्थ को बताने के लिए सूत्रनिर्देश नहीं किया है । उन्होंने अपनी सूत्ररचना में यही सिद्ध किया है कि लोकप्रसिद्ध अर्थों के लिए सूत्र बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है।
व्याख्याकारों ने कहा है कि "न य्वोः पदाद्योवृद्धिरागमः” (२।६।५०) सूत्र में स्पष्ट निर्देश है कि यकार और वकार से पूर्व वृद्धि (ऐ, औ) आगम हो । इसी प्रकार “अव्ययसर्वनाम्नः स्वरादन्त्यात् पूर्वोऽक्कः ” (२।२।६४) इस सूत्र में भी अन्त्य स्वर से पूर्व अक्प्रत्यय का स्पष्ट निर्देश है। अतः सूत्र बनाने का कोई मुख्य प्रयोजन तो सिद्ध नहीं किया जा सकता । केवल यही कहा जा सकता है कि मिले हुए वर्गों में वृद्धि आदि कार्य कहाँ हुए हैं - इस सन्देह के निरासार्थ यह सूत्र बनाया गया है ।।२२।
२३. लोकोपचाराद् ग्रहणसिद्धिः (१।१।२३) [सूत्रार्थ]
लोकव्यवहार के अनुसार उन शब्दों की भी सिद्धि इस व्याकरण में कर लेनी चाहिए, जो यहाँ सूत्रों में उक्त नहीं हुए हैं ।।२३।
[दु० वृ०] .
लोकानामुपचारो व्यवहारः, तस्मादनुक्तस्यापि ग्रहणस्य सिद्धिर्वेदितव्येति । निपाताव्ययोपसर्गकारककालसङ्ख्यालोपादयः। तथा वरणा इति नगरस्यापि संज्ञा |