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सन्धिप्रकरणे प्रथमः सज्ञापादः २. अपने अपने स्थानों के अन्त में स्थित । तदनुसार ताल्वादि स्थानों के अन्त में स्थित होने के कारण उक्त ४ वर्णों को अन्तस्था कहते हैं ।
पाणिनि ने इन वर्गों का बोध 'यण' प्रत्याहार से कराया है । शर्ववर्मा की अन्तस्था संज्ञा अन्वर्थ है और पाणिनि का यण् प्रत्याहार कृत्रिम ।
पूर्वाचार्यों द्वारा भी इसका व्यवहार किया गया है । यथा - शतपथब्राह्मण में प्राणों के मध्य में स्थित वाणी को अन्तःस्था वाणी कहा गया है - "प्राणानां मध्ये या तिष्ठति सैवान्तःस्था वागुच्यते” इति । (१।४।३।८)।
ऋक्प्रातिशाख्य "चतस्रोऽन्तस्थास्ततः” (१।९)। भाष्यकार उव्वट ने इसकी अन्वर्थता दिखाते हुए कहा है - "स्पर्शीष्मणामन्तमध्ये तिष्ठन्तीत्यन्तस्थाः" (१।९)।।१४।
तैत्तिरीयप्रातिशाख्य- “पराश्चतस्रोऽन्तस्थाः' (१।८)। वाजसनेयिप्रातिशाख्य -- “य् र् ल् व् अन्तस्थाः' (८।१४; १५)।
ऋक्तन्त्र - "यिति रिति लिति विति अन्तस्थाः” (१।२)। ऋक्तन्त्रकार ने एकदेश 'स्था' शब्द का भी व्यवहार किया है - "रात् स्था जरे, रणमपि स्थायाम्" (४।३।९,११)। नाट्यशास्त्र- "यरलववर्णास्तथैव चान्तस्थाः” (१४।१९)।
१५. ऊष्माणः श-ष-स-हाः (१११११५) [सूत्रार्थ] व्यञ्जनसंज्ञक 'श-ष-स-ह' इन चार वर्णों की ऊष्म संज्ञा होती है ।।१५। [दु० वृ०]
'श-ष-स-ह' इत्येते वर्णा ऊष्मसंज्ञा भवन्ति । 'शिडिति शादयः" (३।८।३२) इति पुनलघुसंज्ञा । एताः पूर्वाचार्यप्रसिद्धा अन्वर्था इह ज्ञाप्यन्ते ।।१५।
[दु० टी०]
"ऊष्माणः। ननु चैषामाख्याते शिट्संज्ञा वक्ष्यते, तयैव व्यवहारो दृश्यते, "शिट्परोऽघोषः" (३।३।१०) इति, तस्थौ । “अघोषेष्वशिटां प्रथमः" (३।८।९) इति, भित्सीष्ट । तत् किमनया संज्ञया इत्याह - "शिडिति शादयः" (३।८।३२)