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सन्धिप्रकरणे प्रथमः सज्ञापादः
८७ कृतेऽपि अन्तरङ्गत्वेऽपि न्वागमे कृतेऽपि बहिरङ्गो अकारोऽसिद्धः स्यात् । अतो नुरागमो न भविष्यति ? सत्यम् । नायं ञकारो बहिरङ्गः, किन्तु तस्याप्यन्तरङ्गत्वान्नकारस्यानुस्वारे भवति उकार इति ।।१३।
[समीक्षा]
'अनुनासिक' शब्द के अनेक अर्थ किए गए हैं। जैसे- जिन वर्गों के उच्चारण में नासिका के साथ बाद में संयोग होता है, उनकी अनुनासिक संज्ञा होती है। मुख के साथ नासिका से अथवा मुख और नासिका से उच्चरित होने वाले वर्ण अनुनासिक कहे जाते हैं । कलापकार ने केवल वर्गीय पञ्चम वर्णों की ही यह संज्ञा मानी है जब कि पाणिनि के अनुसार (मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः १।१।८) यह संज्ञा वर्गीय पञ्चम वर्गों के अतिरिक्त उन सभी अज्वर्णों की भी होती है, जिनके उच्चारण में नासिका का भी संयोग होता है । ‘अनु' ग्रहण से केवल नासिकास्थान वाले अनुस्वार की अनुनासिक संज्ञा नहीं होती है ।
पूर्वाचार्यों ने भी इस संज्ञा का प्रयोग किया है। जैसे -
ऋग्वेदप्रातिशाख्य - "अनुनासिकोऽन्त्यः" (१।१४) । “अष्टावाद्यानवसानेऽप्रगृह्यानाचार्या आहुरनुनासिकान् स्वरान्” (१।६३)। उव्वट ने अपने भाष्य में अनुनासिक को अन्वर्थ बताते हुए उसे दो स्थानों वाला कहा है- “इयमन्वर्था संज्ञा । नासिकामनु यो वर्णो निष्पद्यते स्वकीयस्थानमुपादाय स द्विस्थानोऽनुनासिक इत्युच्यते” (१।१४)।
तैत्तिरीयप्रातिशाख्य - "अनुस्वारोत्तमा अनुनासिकाः” (२।३०)। वाजसनेयिप्रातिशाख्य – “मुखनासिकाकरणोऽनुनासिकः” (१।७५)।
ऋक्तन्त्र- "हुमित्यनुनासिकः, अन्त्योऽनुनासिकः, साक्षरं पदान्तोऽवसितः" (१।२२।२।७, ८)।
काशकृत्स्नधातुव्याख्यान - "अनुनासिकोऽनुषङ्गः" (सूत्र ७) । यहाँ ‘अनुषङ्ग' शब्द से वर्गीय पञ्चम वर्गों का ग्रहण होता है।
अर्वाचीन व्याकरणों में भी इसे स्वीकार किया गया है । आचार्य देवनन्दी : ने 'ङ' वर्ण को नासिक्य कहा है- “नासिक्यो ङः' (जै० १११।७)।
अग्निपुराण- "उपदेश इद्धलन्त्यं भवेदजनुनासिकः" (३४८।२)।