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प्राकृत
डॉ० सुनीत कुमार चटर्जी ने कहा है कि बौद्ध धर्म ग्रन्थों का अनुवाद बुद्ध की मूल पूर्वी बोली से जिन-जिन अन्य प्राचीन भारतीय प्रादेशिक बोलियों में हुई थी, उनमें से एक पालि भी थी। इस पालि भाषा को गलती से मगध या दक्षिण बिहार की प्राचीन भाषा मान लिया जाता है; वैसे यह उज्जैन से मथुरा तक के मध्य देश के भूभाग की भाषा पर आधारित साहित्यिक भाषा थी। मध्य देश की भाषा के रूप में, पालि भाषा आधुनिक हिन्दी या हिन्दुस्तानी की भाँति केन्द्र की आर्यावर्त के हृदये प्रदेश की भाषा थी। अतएव आस-पास में पूर्व, पश्चिम, पश्चिमोत्तर, दक्षिण-पश्चिम आदि के जन इसे सरलता से समझ लेते थे। बौद्ध शास्त्र ग्रन्थों का पालि भाषा में अनुवाद (एवं कालान्तर में उनका संस्कृत अनुवाद) ही विषेश रूप से प्रचलित हुआ और मूल पूर्वी भाषा वाला पाठ लुप्त हो गया। पालि आगे चलकर बौद्धों के हीनयान के 'थेरवाद' सम्प्रदाय की प्रधान साहित्यिक भाषा बनी। यही पालि सिंहल पहुंची और यहीं से ब्रह्म देश एवं स्याम तक पहुंची। यह इन्दोचीन के बौद्ध मत की धार्मिक भाषा भी बनी। इस तरह हम देखते हैं कि पालि का प्राचीन शौरसेनी से जितना अधिक सादृश्य है, उतना अन्य किसी बोली से नहीं। मध्य एशिया में अश्वघोष के नाटकों के जो अंश मिले हैं उनमें प्रयुक्त प्राचीन शौरसेनी (मध्यदेश की भाषा) पालि से बहुत अधिक समानता रखती है। खारवेल के अभिलेख की भाषा पालि से बहुत समानता रखती है। पालि के साहित्यिक भाषा हो जाने पर उसमें पैशाची एवं पूर्वी भाषा के रूप भी प्रयुक्त होने लगे। संस्कृत के तत्सम, अर्ध तत्सम आदि रूप भी प्रयुक्त : होने लगे; जैसे रत्न-रतन आदि । संस्कृत से पालि का भेद
संस्कृत से पालि का जो मुख्य अन्तर हुआ वह आगे चल कर मध्य भारतीय आर्य भाषा में पूर्णरूपेण परिलक्षित होने लगा। संस्कृत के ऐ, औं स्वर पालि में लुप्त हो गए। इनका स्थान ए