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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
ने बिन्ध्य प्रदेश की भाषा को पालि का आधार माना है। उन्होंने उत्तर भारत की समस्त जन भाषाओं के साथ पालि की तुलना कर अपने इस मत की स्थापना की है। स्टेन केनों ने भी यही मत प्रकट किया है। किन्तु उनके निष्कर्ष का तरीका कुछ भिन्न है। पालि में पैशाची के कुछ लक्षण दिखाई देते हैं। जैसे--ग, द का क, त होता है। स्टेन केनो महाशय ने विन्ध्य प्रदेश को 'पैशाची' भाषा का स्थान मान कर 'पालि' का आधार विन्ध्य प्रदेश की बोली को माना। किन्तु पैशाची को ग्रियर्सन ने विन्ध्य प्रदेश की भाषा माना है। ग्रियर्सन महोदय ने पालि में मागधी एवं पैशाची की विशेषताएं देखकर इसे मगध की भाषा माना है। यह पालि तक्षशिला में पहुंचकर पैशाची से प्रभावित हुई। प्रोफेसर रीजडेविड्स ने कोशल की बोली को पालि का आधार माना है। उनके अनुसार ई० पू० छठी-सातवीं शताब्दी में कोशल में प्रचलित भाषा ही पालि की जननी है क्योंकि बुद्ध ने स्वयं अपने लिए 'कोशल खत्तिय' (कोशलक्षत्रिय) कहा है। सम्भवतः इसी में वे अपना उपदेश करते होंगे। विडिश और गायगर ने पालि को साहित्यिक भाषा माना है, जो सब जनपदों में समझी जाती थी और विभिन्न जनपदों में स्थानीय उच्चारण आदि की विशेषताओं को भी ग्रहण करती थी। किन्तु कोई भी साहित्यिक भाषा किसी जनपदीय बोली के आधार पर ही निर्मित होती है। अतः यह विचार तर्क संगत प्रतीत नहीं होता। कुछ विद्वानों का कहना है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार (अवध, बनारस, गोरखपुर, उत्तरी तथा दक्षिणी बिहार) के भू-भाग में तत्कालीन प्रचलित मध्ययुगीन भारतीय आर्य भाषा के एक पूर्वी रूप में भगवान बुद्ध एवं महावीर ने अपना उपदेश दिया। भगवान बुद्ध के उपदेशों का प्रणयन सर्वप्रथम इसी पूर्वी बोली में हुआ था। बाद में पालि भाषा में इसका अनुवाद हुआ। इस मत की पुष्टि पेरिस के विद्वान स्व० सिल्वां लेवी (Sylvain Levi) तथा बर्लिन के प्राध्यापक हाइब्रिख् ल्यूडर्स (Henirich Luders) सदृश ख्याति प्राप्त विद्वज्जनों ने अत्यधिक उदाहरण देकर की