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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
और ओ ने लिया-'ऐरावण' का एरावण, 'गौतम' का गोतम और 'औषध' का 'ओषध' हो गया। पालि में संयुक्त व्यंजनों से पूर्व ह्रस्व स्वर का ही प्रयोग होने लगा, जैसे-मार्ग-मग्ग, कार्य-कय्य, पूर्ण-पुन्न। संयुक्त व्यंजनों से पूर्व ए, ओ हस्व भी उच्चारण हो गया, जैसे-मैत्री-में त्ती, ओष्ठ-ओट्ठ। संस्कृत की ऋ, लु, ध्वनियाँ भी पालि में लुप्त हो गयीं। विसर्ग का भी लोप हो गया। ऊष्म ध्वनियों में स मात्र अवशिष्ट रह गया। जैसे-श्मशान का पालि में सुसान हो गया। संस्कृत के जिस शब्द में संयुक्त व्यंजन के पूर्व दीर्घ स्वर था, उसके पालि प्रतिरूप में दीर्घ स्वर हस्व हो गया। जैसे–मार्ग-मग्ग, जीर्ण-जिण्ण, चूर्ण-चुण्ण आदि। ऋ स्वर का विकास अर, इर, उर और कभी-कभी ‘एर्' के रूप में हुआ। मध्य भारतीय आर्य भाषाओं में 'र' का लोप होकर केवल आ, इ, उ अथवा ए रह गए। पालि में भी यह परिवर्तन दिखाई देता है। यथा-ऋक्ष-अच्छ, हृदय-हदय, मृग-मिग, ऋण-इण, वृश्चिक-विच्छिक, ऋजु-उजु, पृच्छति-पुच्छति। कृत-कत, कित आदि। स्वराघात (accent) के कारण भी पालि में स्वर परिवर्तन हुआ है। जिन शब्दों का प्रारम्भिक अक्षर (Syllable) पर स्वराघात था उनके द्वितीयाक्षर के 'अ' का 'इ' हो गया। यथा-चन्द्रमस्-चन्दिमा, चरम-चरिम, परम-परिम, मध्यम-मज्झिम, अहंकार-अहिंकार आदि ।
सम्प्रसारण एवं अक्षर संकोच-पालि में य, या के स्थान पर इ एवं ई तथा व एवं वा के स्थान पर उ, ऊ होता है। जैसे-द्वयः, त्रयः के स्थान पर द्वीह एवं त्रीह होता है। स्वान-सून, स्वस्ति-सुत्थि, सोत्थि, श्वभ-सुष्म, सोम इत्यादि। कहीं-कहीं सम्प्रसारण नहीं भी होता है, जैसे-व्यसन, व्याध इत्यादि। स्वर भक्ति या विप्रकर्ष (Analtyxis) के उदाहरण भी मिलते हैं-तीक्ष्ण-तिखिण, तिक्ख, तृष्णा-तसिण एवं तण्हा, राज्ञा-राजिज्ञो एवं रञो, वर्यते-वरियते
आदि। पालि भाषा में र और ल दोनों ही ध्वनियाँ वर्तमान हैं, किन्तु र और ल के परस्पर परिवर्तन के उदाहरण भी विरल नहीं हैं-एरंड-एलंदु, परिखनति-पलिखनदि, त्रयोदस-तेरस-तेलस, दर्दुर-दद्दल, तरुण-तलुण आदि। ऊष्म व्यंजनों का प्राण ध्वनि