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प्राकृत
से निकली है । प्रारम्भिक (प्राइमरी) प्राकृत इन दोनों भाषाओं से अवश्य पूर्व की होगी या उन्हीं के साथ प्रचलित रही होगी ।
वैदिक संस्कृत और प्राकृत में निम्नलिखित समताएं हैं-
1. सन्धि के नियमों में शिथिलता और स्वर भक्ति (स्वरेण भक्ति::- स्वर भक्तिः) वैदिक संस्कृत और प्राकृत में समान पाई जाती है । संस्कृत में यह चीज नहीं पाई जाती है। उदाहरणस्वरूपभार्या-भारिया, क्लिष्ट - किलिट्ठ आदि रूप प्राकृत में पाए जाते हैं। उसी तरह वैदिक संस्कृत में भी स्वर्गः– सुवर्गः, –तन्वः-तनुवः, - स्वः - सुवः आदि मिलते हैं ।
2. जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि विभिन्न प्राकृत और वैदिक संस्कृत में समता है । उनके खास रूप संस्कृत में नहीं हो सकते। उदाहरण - आहो का वैदिक आस् (पुत्राहोदेवास), आए का वैदिक आए, एहि का वैदिक एभिः (देवेभिः, बहुहि ) ।
3. प्राकृत ध्वनियों में कुछ ऐसे खास शब्द हैं जिनका कि वैदिक संस्कृत से पता चलता है किन्तु वे परिनिष्ठित संस्कृत में नहीं पाए जाते हैं। पाशो वैदिक पश्, ता, जा, से वैदिक तात्, यात् आदि और एत्थ से का वैदिक इत्था से ।
4. प्राकृत और वैदिक संस्कृत में ऋ, उ में परिवर्तित हो जाता है। उदाहरण- ऋतु - उउ, ऋग्वेद-कृत- कुउ ।
5. दोनों प्राकृत और वैदिक संस्कृत में संयुक्त व्यंजन में से एक लुप्त हो जाता है और अवशिष्ट स्वर अगर ह्रस्व है तो दीर्घ कर दिया जाता है । दुर्लभ - दूलह आदि ।
6. दोनों भाषाओं में शब्द के अन्तिम व्यंजन को हटा दिया जाता है । उदाहरण- तावत् - ताव, यशस् - जश, वैदिक - पश्चात् - पश्चा, उच्चात्—उच्चा, नीचात् - नीचा ।
7. दोनों जगह संयुक्त व्यंजन के र् या य् समाप्त हो जाता है । प्रगल्भ - पगब्भ, श्यामा-शामा । वैदिक - अप्रगल्भ - अपगल्भ ।