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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
8. दोनों जगह संयुक्त व्यंजन का अवशिष्ट स्वर अगर दीर्घ है तो ह्रस्व हो जाता है। पात्र-पत्त, रात्रि-रत्ति, चूर्ण-चुण्ण, वैदिक-अमात्र-अमत्त।
9. दोनों भाषाओं में द की जगह ड हो जाता है। दण्ड-डण्ड, दंस-डंस, वैदिक-पुरोदास-पुरोडास ।
__10. दोनों जगह 'ध' ह में बदल जाता है। बधिर-बहिर, वैदिक-प्रतिसंधाय-प्रतिसंहाय ।
___11. दोनों भाषाओं के कर्ता कारक एक वचन संज्ञा के अन्त में 'अ' ओ में बदल जाता है। देवो, जिणो, वैदिक-संवत्सरो, सो आदि।
12. दोनों जगह तृतीया के बहुवचन में हि और भि होता है। देवेहि, वैदिक-देवेभिः।
____13. दोनों भाषाओं में पंचमी एक वचन का अन्तिम त् समाप्त हो जाता है। देवा-देवात्, जिणा-जिणात्, वैदिक-उच्चा-उच्चात्, नीचा, पश्चा आदि।
14. दोनों भाषाओं में द्विवचन रूप नहीं पाये जाते। प्रा०राम लक्खणा, वै०-इन्द्रावरुणा, इन्द्रा वरुणौ के लिए। वैदिक संस्कृत में इसके लिए कभी बहुवचन का रूप भी पाया जाता है। प्राकृत में दो, दुबे, बे आदि सुरक्षित हैं।
वैदिक संस्कृत और प्राकृत की इस समता से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्राकृत की उत्पत्ति परिनिष्ठित संस्कृत से नहीं हुई है। वैदिक संस्कृत और प्राकृत की समता से विद्वानों ने यह विचार प्रकट किया है कि वैदिक संस्कृत से प्राकृत की उत्पत्ति हुई है। किन्तु हम देख चुके हैं कि इन समताओं के बावजूद इन दोनों में खास अन्तर है। वस्तुतः वैदिक संस्कृत से भी प्राकृत की उत्पत्ति नहीं हुई है। जैसा कि डा० ग्रियर्सन आदि विद्वानों ने अपना विचार व्यक्त किया है।