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प्राकृत
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(ग) परवर्ती जैन पुस्तकों की भाषाएँ ।
(घ) पैशाची - जिसमें कि बृहत्कथा लिखी गई। इस भाषा का ज्ञान हमें वैयाकरणों द्वारा होता है ।
(3) परवर्ती प्राकृत या अपभ्रंश - लोक प्रचलित बोलियों के आधार पर भी प्राकृत की रचना हुई थी। वे बोलियाँ नियमों में नहीं बांधी जा सकी थीं। इसका विकास निरन्तर होता रहा और ये अपभ्रंश के नाम से पुकारी गयीं । भाषा शास्त्र की शब्दावली में अपभ्रंश का अर्थ होगा विकास को प्राप्त की हुई भाषा । जैसे प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं के साहित्यिक भाषा हो जाने से मध्य युगीन भारतीय आर्यभाषाएँ प्राकृत को महत्वपूर्ण स्थान मिला था, उसी प्रकार जब मध्ययुगीन भारतीय आर्य भाषाएँ प्राकृत साहित्यिक रूप धारण कर जन सामान्य की भाषाओं से दूर हो गयीं तो अपभ्रंश को महत्व दिया गया। इस तरह जन साधारण की बोली की परम्परा निरन्तर जारी रही। आगे चल कर जब अपभ्रंश की भाषा भी लोक भाषा नहीं रह गई, साहित्यिक रूढ़ता धारण कर जनता से दूर हो चली, तो देशी भाषाओं - हिन्दी, गुजराती आदि का उदय हुआ। वास्तव में प्राकृत, अपभ्रंश और देशी भाषा- इन तीनों के आरम्भ काल में एक ही अर्थ थे-जैसे-जैसे इनका साहित्यिक रूप बना, वैसे-वैसे उनका रूप भी बदलता गया ।
परम्परा के अनुसार प्राचीन भारत की भाषाएँ तीन वर्गो में मुख्यतया विभक्त की गई हैं। वे हैं
अपभ्रंश ।
1. संस्कृत, 2. प्राकृत और 3. दण्डी', भामह और भोजराज सभी ने तीन भेद किये हैं। रुद्रट ने इसकी संख्या बढ़ाकर 6 कर दी है। उसने मागधी, शौरसेनी और पैशाची को भी जोड़ दिया है । यह भेद तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता । प्राकृत के विभिन्न प्रकार मागधी, शौरसेनी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि होते हुए भी इन सभी में बहुत कम भेद था ।