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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
'गच्छति' के अर्थ में प्रयोग करते हैं। जबकि आर्य लोग इसे शव मुर्दा के अर्थ में प्रयोग करते हैं तो उत्तर वाले संज्ञा रूप 'दात्र' को छुरी के अर्थ में प्रयोग करते हैं ।15 पतञ्जलि ने भी यास्क की तरह महाभाष्य में संस्कृत के प्रान्तीय शब्दों का उद्धरण दिया है।6
__इस प्रकार हम देखते हैं कि पाणिनि और यास्क के समय ही संस्कृत केवल जन-भाषा नहीं थी, अपितु यह भी निश्चित प्रमाण मिलता है कि उन लोगों के बाद भी वार्तिककार कात्यायन के समय में भी यह जनभाषा थी, किन्तु इस समय यह शिष्टों की भाषा भी हो चली थी। पाणिनि की त्रुटि दिखाते हुए कात्यायन का कहना है कि सम्बोधन में नाम और नामन् दोनों रूप होते हैं। द्वितीया और तृतीया शब्दों के पुल्लिंग और नपुंसक लिंग में उपाध्याय, आर्य, क्षत्रिय और मातुल शब्दों के उपाध्यायी, आर्या, क्षत्रिया और मातुलानी रूप नित्य न होकर विकल्प से होते हैं। इन सभी चीजों से पता चलता है कि यह भाषा कभी बोलचाल की भाषा रही होगी।” प्रभात चन्द्र चक्रवर्ती ने भी अपने प्रबन्ध में यह निष्कर्ष निकाला है कि संस्कृत मृतभाषा नहीं थी। यह कभी जनता में प्रचलित रही होगी भले ही यह सीमित रूप में रही हो और ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में यह जनभाषा रही होगी। पाणिनि, यास्क और कात्यायन ने उदीच्य और प्राच्यों के विशिष्ट प्रयोगों का उल्लेख किया है। ये सभी साक्ष्य निश्चित रूप से उपर्युक्त प्रतिपादन की पुष्टि करते हैं। वस्तुतः भाषा का आदर्श वह भाषा है जिसे शिष्ट लोग बोलते हैं और शिष्ट वे लोग हैं जो विशेष शिक्षण के बिना ही शुद्ध भाषा (संस्कृत) बोलते हैं। व्याकरण का प्रयोजन हमें शिष्टों का परिज्ञान कराना है, जिससे उनकी सहायता से पृषोदर जैसे शब्दों के, जो व्याकरण के साधारण नियमों के अन्दर नहीं आते, विशुद्ध रूपों को जान सकें। डा० कीथ के शब्दों में हम कह सकते हैं कि निश्चित रूप में कभी उच्च और कभी निम्न वर्गों की भाषा से निष्पन्न ये शब्दान्तर हमें इस मुख्य स्थिति का स्मरण दिलाते हैं कि भारत के किसी भी