________________
भारतीय आर्य-भाषा
समय में भाषा के कई रूप वस्तुतः व्यवहार में प्रचलित थे। वे भाषा के रूप समाज के वर्गों के अनुसार परस्पर भिन्न होते थे। वैदिक भाषा एवं लौकिक संस्कृत का जहाँ एक ओर प्रचार था, वहीं दूसरी ओर प्रादेशिक भाषाएँ भी प्रचलित थीं। अनार्य भाषाएं भी बोली जाती थीं। इन सभी का परस्पर में आदान-प्रदान भी होता रहता था। मुण्डा और द्रविड़ परिवार की भाषाओं का भी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। इन प्रभावों से प्रभावित होने के कारण वैदिक एवं संस्कृत के उच्चारण में परिवर्तन होता था। इस प्रकार आर्य भाषा अपने विभिन्न स्वरूपों एवं बोलियों के रूप में, पश्चिम में गान्धार से लेकर पूर्व में विदेह एवं मगध तक तथा उत्तर में हिमालय के प्रदेश से लेकर मध्य भारत के वन प्रदेश तक तथा पश्चिम के सागर के तट की ओर गुजरात से होकर दक्षिण में लगभग 600 वर्ष ई० पू० तक प्रतिष्ठित हो गई। इसके पश्चात् वह बंगाल में, दाक्षिणात्य में तथा सुदूर दक्षिण भारत में फैली। प्राकृत और संस्कृत के रूप में आर्य भाषा समस्त भारत में और भारत से बाहर भी फैलने लगी। आगे चलकर महाकाव्यों और काव्यों की रचना में संस्कृत ने कृत्रिमता का रूप धारण किया; कुछ लोगों के बुद्धि विलास का साधन मात्र रह गई। समाज के विशिष्ट वर्गों की भाषा हो गई और प्रादेशिक भाषाओं का विकास बढ़ चला। प्रादेशिक भाषाओं में उपदेश देने वाले कई धार्मिक नेता हुए। इससे प्रादेशिक भाषाओं का विकास हुआ; प्राकृत सर्व साधारण की भाषा बनी।
संदर्भ
भारत का भाषा सर्वेक्षण-पृ० 221-अनु० डॉ० उदय नारायण
तिवारी, प्रकाशन सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश। 2. दि ओरिजिन एण्ड डेवलप्मेंट ऑफ बंगाली लैंग्वेज-पृ० 24,-हिन्दी
भाषा का उद्गम और विकास-पृ० 167 पर डा० तिवारी ने दोनों के मतों का संक्षेप में स्पष्ट विभेद दिखाया है।