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भारतीय आर्य-भाषा
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यह समाज के उच्च वर्ग के सुशिक्षित समाज तक ही सीमित थी। मुख्यतया यह ब्राह्मणों की भाषा थी। समाज के तीन वर्ग जो समान्यतया द्वि-जातीय कहलाते थे और जिन्हें यज्ञोपवीत तथा वेद पढ़ने का अधिकार था, संभवतः संस्कृतभाषी थे। उपनिषद् की घटनाओं से यह स्पष्ट है कि क्षत्रिय लोग दार्शनिक वाद-विवादों में मुख्यतया भाग लेते थे। जनक के राजदरबार में प्रायः ऐसा होता था। इसमें सन्देह नहीं कि यह शास्त्रार्थ वाली संस्कृत प्रणाली भारत की बहुत पुरानी चीज है। ब्राह्मणों के अतिरिक्त लोग भी जो किसी सम्मानित पद पर थे, वे संस्कृत अच्छी तरह से बोल सकते थे। रामायण में हनुमान ने सीता से संस्कृत में बातचीत की थी। महाभाष्य में वर्णन आया है कि सूत भी संस्कृत बोलने में समर्थ होते थे। एवं हि कश्चिद् वैयाकरण आह कोऽस्य रथस्य प्रवेतेति ? सूत आह-आयुष्मन्नाहं प्राजितेति। अन्तः और बाह्य साक्ष्य के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ईसा शताब्दी के आरम्भ काल में संस्कृत जनभाषा थी। इसका रूप आधुनिक हिन्दी की तरह रहा होगा। भाषा शब्द जो कि 'भाष' धातु से बना है जिसका अर्थ बोलना होता है-यह बताता है कि एक समय में संस्कृत भी ग्रीक और लेटिन की तरह जनभाषा थी। डा० कीथ का कहना है कि पाणिनि ने संस्कृत के लिए भाषा शब्द का प्रयोग किया है। उसका स्वाभाविक अर्थ 'बोलचाल की भाषा' ही है। इसके अतिरिक्त पाणिनि ने ऐसे नियमों का विधान किया है जो कि बोलचाल की भाषा से सम्बन्ध न रखते हों तो, निरर्थक हो जाते हैं |14 निरुक्त में भाषा के विषय में जो उदाहरण दिए गऐ हैं उससे भी पता चलता है कि एक समय में यह अवश्य जीवित जनभाषा थी। यास्क ने संस्कृत को जनभाषा के रूप में स्पष्ट किया है। उनका कहना है कि कुछ वैदिक शब्दों (कृदन्त) का प्रयोग भाषा या तत्कालीन प्रचलित जनभाषा की धातु क्रिया रूपों के समान प्रयुक्त होते हैं-भाषिकेभ्यो धातुभ्यो नैगमाः कृतो भाष्यन्ते-निरुक्त 2-2 | क्रियात्मक रूपों के बारे में यास्क अपना मन्तव्य देते हैं कि कम्बोज वाले 'शवति' क्रिया को