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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
था, ग्यारहवां एक 'लेट् लकार' भी था जो कि केवल वैदिक लकारों में ही प्रयुक्त होता था । वर्तमान काल के लिये लट् लकार' का प्रयोग होता था । भविष्यत् काल के लिये लृट् लकार तथा भूत काल के लिये लिट् लकार प्रयुक्त होता था । यह लकार अनद्यतन भूत के लिये प्रयुक्त होता था । अनद्यतन भविष्य में लुट्, अनद्यतन भूत में लंङ् एवं लुङ् लकार प्रयुक्त होता था । अवशिष्ट लोट्, लिंङ् (विधि एवं आशिष लिंङ) एवं लृङ् लकार, आशीर्वाद विधि एवं हेतुहेतुमद्भावादि अर्थों में लुङ भी होता था । संस्कृत में भूतकाल के लिये कृदन्त निष्ठा क्त - क्तवतु प्रत्यय का भी प्रयोग होता था। संस्कृत में व्याकरण की दृष्टि से भूत के अर्थ को स्पष्ट करने के लिये विभिन्न लकार थे, जिनके प्रयोगों से अर्थ निर्णय में सरलता होती थी, परन्तु पालि के समय में यह नियम ढीला हो चला । प्राकृत के युग में भूतकाल के सभी लकार विनष्ट हो चले। केवल स्वरान्त धातुओं से भूत के अर्थ में विहित प्रत्ययों के स्थान पर ही, सी, तथा हीअ प्रत्यय होते थे जैसे - कासी, काही और काहीअ (संस्कृत-अकार्षीत्, अकरोत् चकार इत्यादि) आदि । प्राकृत प्रकाशकार वररुचि के मत में 'इअ' प्रत्यय का भी प्रयोग होता था । यही इअ प्रत्यय प्राकृत में व्यंजनान्त धातुओं से परे भूत अर्थ में होता था, जैसे- गेण्हीअ (सं० जग्राह ) । किन्तु अपभ्रंश का युग आते-आते भाषा में सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण ये भूतकालिक प्राकृत के रूप भी घिसते घिसते समाप्त हो गये । फलतः अपभ्रंश में भूतकाल के द्योतन के लिये कृदन्त का प्रयोग होने लगा। अद्यतन और अनद्यतन भूत के लिये क्रियाति पत्त्यर्थ (Conditional) समाप्त हो चला - आसि< आसीत्। हउं आसि घित्तु विवाए जिणेप्पिणु । णउ जक्खहं रक्खहं किन्नराहं लइ इत्थु आसि संचरू नराह; कर्मणि भूत-कृदन्त प्रयोग। संस्कृत में भूतकाल के लिये निष्ठा क्त, क्तवतु का प्रयोग होता था । क्तवतु = तवत् +तवान् का प्रयोग कर्तृवाच्य में तथा क्त=त का प्रयोग सामान्यतया 'भाव कर्मणि' होता था । किन्तु अपभ्रंश में भूतकाल के अर्थ द्योतन के लिये कृदन्त क्त=त
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