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एकादश अध्याय क्रियापद
धातु-प्रत्यय-प्रेरणार्थक-विकार युक्त प्रक्रिया
श्री उलनर के अनुसार मध्य भारतीय आर्य भाषा में संज्ञा की अपेक्षा क्रियाओं में बहुत परिवर्तन हुआ। समान्यतया साधारण ध्वनि नियम का प्रभाव व्यंजनात्मक क्रियाओं पर अधिक पड़ा। प्राचीन भारतीय आर्यभाषा के व्यंजनान्त रूप प्रायः स्वरान्त हो गये। कारक रूपों की भाँति क्रिया में भी सरलीकरण की प्रवृत्ति रही। क्रियाओं के विविध रूप एकरूपता में परिणत हो गये। एकरूपता की यह प्रवृत्ति पुरानी प्राकृत में नहीं पाई जाती किन्तु परवर्ती प्राकृत और अपभ्रंश काल तक आते-आते केवल एक क्रिया रूप अवशिष्ट रहा। इन रूपों में यद्यपि बहुत सी अनियमिततायें भी पाई जाती हैं फिर भी इन रूपों ने इस काल को पुरानी पद्धति के काल से पृथक कर दिया।
इस प्रकार संस्कृत में बहुत से क्रियापदों का प्रचलन था। उन सबका अपभ्रंश में अभाव हो चला, जैसे अपभ्रंश में अकारान्त नामों की प्रधानता हो चली, व्यंजनान्त समाप्त हो चले। संस्कृत विभक्तियों का अत्यधिक हास हो चला था, क्रियापदों में भी बहुत कमी हो चली थी। आत्मनेपद समाप्तप्राय सा हो चला था। किन्तु कुछ अवशिष्ट रूप जरूर बचे रहे जैसे संस्कृत के अनुकरण पर पिच्छए, लुभए, लक्खए आदि प्रयोग पाये जाते हैं। कृदन्त के प्रयोगों में आत्मनेपद का रूप पाया जाता है-वट्टमाण, पविस्समाण, आदि रूप भी मिलते हैं।
अपभ्रंश में बहुत कम लकार हो गये। संस्कृत में ये लकार कालों के बोधक होते थे, संस्कृत में 10 लकारों का प्रयोग होता