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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
बैठकर पौरोहित्याभिलाषी आर्य युवकगण व्यवस्थित रूप से सूक्त-स्तव आदि कण्ठस्थ करते थे और कर्मकाण्ड आदि सीखते थे। यह भी संभव हो सकता है कि इस पाठशाला के निर्माण में सुसभ्य द्राविड़ों का भी हाथ रहा होगा। अपनी सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के लिए यह आवश्यक था कि वे इस कार्य में योगदान देते। किन्तु जब तक यह भाषा अलिखित रही होगी तब तक यह स्वाभाविक था कि भाषा में अलक्षित रूप से परिवर्तन होता रहा हो और सामान्य लोगों को पता भी नहीं चल पाया हो। बाद में चलकर कुछ ऋषि-मुनियों ने इस चीज को परिलक्षित किया होगा और स्वरों का विधान किया होगा जिससे कि ऋचाओं के उच्चारण में किसी प्रकार का परिवर्तन न हो। उदात्त, अनुदात्त और स्वरित का विधान किया। इसी कारण आगे चलकर ऋषियों ने ऋचाओं को अपरिवर्तित बनाए रखने के लिए इन नियमों पर विशेष बल दिया। और इस समय तक वैदिक भाषा परिनिष्ठित हो चुकी थी। सुसंस्कृत एक आदर्श भाषा हो चुकी थी। किन्तु प्रारम्भिक काल में वैदिक भाषा की विभाषायें जरूर होंगी जैसा कि पहले इस ओर लक्षित किया जा चुका है।
बुद्ध और महावीर काल की संस्कृत एवं
प्राकृत भाषा के विकास पर विचार
अब वैदिक भाषा साधु भाषा हो चली थी। लेखन पद्धति भी अब तक प्रचलित हो गयी थी। डॉ० बटे कृष्ण घोष ने इस पर विशद विवेचन किया है। भारत में आगमन के पश्चात आर्यो की उपभाषाओं ने भी अपना विकास करना आरम्भ कर दिया था। इस काल को हम 'उत्तर वैदिक काल कह सकते हैं। अब आर्य भाषा पूर्व प्रान्त की ओर आगे बढ़ी। नेपाल की तराई में इसी समय बुद्ध का जन्म हुआ था। आगे उन्होंने अपना धर्म प्रचार आधुनिक बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में किया था। अब तक आर्य भाषा विदेह (उत्तर बिहार) तथा मगध (दक्षिण बिहार) तक फैल चुकी थी। इस समय के बीच इस भाषा में बड़े भारी-भारी