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रूप विचार
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अपभ्रंश में द्विवचन के लिये कोई विभक्ति नहीं पायी जाती है। द्विवचन का अभाव पालि एवं प्राकृत से ही हो गया था। वैदिक संस्कृत में द्विवचन की बहुलता नहीं थी, फिर भी उस समय द्वन्द्वात्मक चीजों को देखकर ही संभवतः द्विवचन का अविर्भाव हुआ था। वैदिक संस्कृत में द्विवचन का प्रयोग प्रायः ऐसे ही स्थानों पर हुआ है जहाँ कि दो चीजों को एक साथ प्रयुक्त करना पड़ा है, पर आगे चल कर लौकिक संस्कृत में द्विवचन इतना रूढ़ हो गया कि जिससे उसका प्रयोग सर्वत्र सुबन्त और तिङन्त में होने लगा। जब पालि और प्राकृत का युग आया तो ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय भाषा के सरलीकरण की प्रवृत्ति होने के कारण द्विवचन को निरर्थक सा समझा जाने लगा। अपभ्रंश में भी यह स्वाभाविक ही था कि यहाँ भी द्विवचन का अभाव हो। अपभ्रंश में द्विवचन के अभाव के कारण आधुनिक भारतीय आर्य भाषा हिन्दी में भी द्विवचन का अभाव हो गया। द्विवचन शब्द के लिये संस्कृत में उभौ तथा द्विशब्द प्रयुक्त होता था। इसी द्वि का प्राकृत दुइ या वि बना, अपभ्रंश में यही बे होकर द्विवचन का बोधक हुआ जैसे-मह कन्तह बे दोसडा हेल्लिम झंखहि आलु-हेम० 4/8/379।
परसर्ग
परसर्ग का बीज रूप हमें प्राचीन भारतीय आर्यभाषा में ही मिलता है। संस्कृत तथा पालि के शब्द रूपों में विभक्तियों के साथ या उसके विना भी परसर्ग प्रयुक्त होता था जैसे संस्कृत में-तस्य समीपे या तत्समीपे (उसके पास) पालि-गोतमस्य सन्तिके, निव्वाण सन्तिके। यही प्रवृत्ति अपभ्रंश और न० भा० आ० में भी है। प्रा० भा० आ० भाषा के शब्द रूपों में विभक्तियों के ह्रास के कारण ही यह प्रवृत्ति, अपभ्रंश में प्रचलित हई। परवर्ती अपभ्रंश में विभक्तियों के हास के कारण परसर्ग की प्रधानता हो गयी। न० भा० आ० में तो विभक्तियों की जगह परसर्ग ने ले लिया। यद्यपि परवर्ती अपभ्रंश अवहट्ट में-संक्राति कालीन भाषा होने के कारण प्राकृत तथा अपभ्रंश (म० भा० आ०) के सविभक्तिक