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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
विधानान्न वक्ष्यमाण लक्षणस्यां। हेमचन्द्र ने सामान्यतया जैन भिक्षुओं की बोली को आर्ष प्राकृत कहा है।
(2) (अ) र् का परिवर्तन ल् में और स्, ष, का श् में-पुलिश, इलिश, हंश।
(ब) स् और ष् का द्वित्व व्यंजन का परिवर्तन स् में होता है श् में नहीं। केवल ष-ग्रीष्म को छोड़कर-हस्ती, पस्खलदि, विस्मय आदि।
(स) ष्ट का ट्ट और स्ट होता है-पष्ट-पट्ट, पस्ट, भट्टालिका, भस्यलिका आदि।
(द) स्थ और र्थ स्त में परिवर्तित हो जाते हैं-उपस्थित-उवस्तिद, सुस्थित-शुस्तिद, अर्थवती-अस्तवदी आदि ।
(3) ज्य, द्य का परिवर्तन य में होता है-जानासि-याणसि, जनपदे-यणवदे, अर्जुने-अय्युने, अद्य-अय्य ।
(4) (अ) न्य, ण्य, और ञ्ज का ञ में परिवर्तन हो जाता है-अभिमन्यु-अहिम , अन्य-अञ, श्रामण्य-शामञ।
(ब) प्रारम्भिक और दूसरे शब्द के आदि में छ की जगह श्च होता है-गच्छ-गश्च, पुच्छति-पुश्चदि।
इस प्रकार पिशेल महोदय का कहना है कि मागधी एक भाषा नहीं थी। बल्कि भिन्न-भिन्न स्थानों में इसकी बोलियाँ प्रचलित थीं। इसलिए क्ष के स्थान में कहीं हक, कहीं श्क, र्थ के स्थान पर कहीं स्त और श्त, ष्क के स्थान पर कहीं स्क और कहीं श्क लिखा जाता है। इसलिए मागधी में वे सभी बोलियाँ सम्मिलित करनी चाहिए जिनमें ज के स्थान पर य, र के स्थान पर ल, स के स्थान पर श लिखा जाता है और जिनके अ में समाप्त होने वाले संज्ञा शब्दों के अन्त में अ के स्थान में ए जोड़ा जाता