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प्राकृत
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अर्धमागधी की विशेषतायें
जिस प्रकार बौद्ध लोग त्रिपिटक की भाषा को पालि कहते हैं उसी प्रकार जैन लोग आगमों की भाषा को अर्धमागधी कहते हैं। भरत ने अर्धमागधी भाषा की सत्ता स्वीकृत की है। प्राचीन वैयाकरण वररुचि, चंड और हेमचन्द्र आदि ने इसका वर्णन किया है। हेमचन्द्र ने सामान्य प्राकृत का वर्णन करते हुए पृथक् रूप से आर्ष प्राकृत का (ऋषेः इदं आर्य 1- - =ऋषियों की भाषा) उल्लेख किया है। इस कारण अर्धमागधी भाषा में आर्ष भाषा का समावेश हो जाता है। हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत-व्याकरण में (1-3) बताया है कि उनके व्याकरण के सभी नियम आर्ष भाषा के लिए लागू नहीं होते क्योंकि उसमें बहुत से अपवाद हैं (आर्षे हि सर्वे विधायो विकल्प्यन्ते)। पं० बेचरदास ने अर्धमागधी भाषा में आर्ष प्राकृत का समावेश किया है। उनका कहना है कि हेमचन्द्र ने जहाँ मागधी भाषा का उल्लेख किया है वहीं उसकी टीका में पुराणम् अद्धमागहा शब्द का भी उल्लेख किया है। जैकोबी ने (एस० बी० इ० बोल्यू० 2 की भूमिका में) इस आर्ष भाषा को जैन महाराष्ट्री कहकर पुकारा है और महाराष्ट्री से इसे पुराना सिद्ध किया है। इसे हम जैन अर्धमागधी कह सकते हैं। ऐसा कहकर हम अर्धमागधी से इसकी भिन्नता सिद्ध करते हैं। नाटकों की अर्धमागधी इससे बिल्कुल भिन्न है और यह मागधी से मिलता-जुलता है। वस्तुतः जैन अर्धमागधी महाराष्ट्री से भी पूर्ववर्ती है। अर्धमागधी इसका नाम इसलिए पड़ा कि इस भाषा को मगध के आधे हिस्से के लोग बोलते थे। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं करना चाहिए कि मागधी से मिलने-जुलने के कारण या मागधी बोली से आधी भाषा लेने के कारण इसका नाम अर्धमागधी पड़ा। वस्तुतः इसकी व्युत्पत्ति 'अर्धमागधस्येयम् भाषा' करनी होगी न कि अर्ध मागध्याः भाषा। निशीथ चूर्णों में जिनदास गुणी ने इसी को स्पष्ट किया है-मगहद्ध विसयभाषा निबद्धं अद्धमागहं।।