________________
जोड़-तोड़ मिला कर झूठी ही सही लेकिन अपने लिये प्रशंसा, आदर और पूजा प्राप्त करें अथवा अन्य प्राणियों के हितों को कुचल कर अपने लिये शान्ति या सुख हथियाने की कुचेष्टा करें। जब प्रयोजन ही समझे जायेंगे किन्तु उनके सदाशय को एवं प्राप्ति की क्रिया की शुभता को ध्यान में नहीं लिया जायेगा तो वैसे मनुष्य के कदम निश्चय ही हिंसा की ओर बढ़ेंगे। फिर वह विभिन्न प्रयोजनों की प्राप्ति के लिये विभिन्न जीवों की बेहिचक हिंसा करेगा, हिंसा करवायेगा और हिंसा का अनुमोदन करेगा । सम्यक् ज्ञान के अभाव में यह जो गलत मोड़ पकड़ लिया जाता है तब क्रियाओं का स्वरूप भी बदल जाता है। वे हिंसक क्रियाएँ बन जाती हैं। इस स्वरूप विकृति को ही क्रियाओं की विपरीतता का नाम दिया गया है।
मेरा अपनी ही क्रियाओं
आलोचना से तथा अन्य प्राणियों की क्रियाओं के विश्लेषण से यह मत बनता है कि हिंसा के रूप में प्रकट होने वाली इस प्रकार की क्रियाओं की विपरीतता सदैव मनुष्य के अपने आत्मविकास तथा मनुष्य समाज के स्वास्थ्य के लिये अहितकारी होती है। हिंसा वृत्ति एवं प्रवृत्ति को अपनाने से मनुष्य एवं समाज की आध्यात्मिकता को भी गहरा आघात लगता
| मैंने महसूस किया है कि हिंसा के महाद्वार से ही मोहजन्य वृत्तियाँ प्रवेश करती हैं और तब आत्मा बंधनग्रस्त होकर अमंगल के अरण्य में भटक जाती है। यह मैं जानता हूँ कि हिंसा का यह एक ही रूप नहीं होता कि किसी जीव का वध कर दिया किन्तु ये सभी हिंसक कार्य कहलायेंगे कि प्राणी के दस में से किसी भी प्राण को चोट पहुँचाई, उसे अपना गुलाम बनाने की चेष्टा की अथवा उसकी स्वतन्त्रता का अपहरण करके उसे अपना सेवक बना लिया। ये सारे हिंसक कार्य क्रियाओं की विपरीतता के ही लक्षण होते हैं । कारण, हिंसा ही क्रियाओं की विपरीतता का मापदंड है ।
मैं उपरोक्त प्रयोजनों को क्रिया की विपरीतता के साथ जोडूं तो उनका यह रूप बनेगा कि मैं जिस भी कदर जितनी हिंसा होगी करूंगा और अपने वर्तमान जीवन की रक्षा करूंगा। जैसे कि एक तानाशाह अपनी जीवन रक्षा में अनगिनत मनुष्यों का खून बहा देने से भी नहीं हिचकता है । मैं अपने मायावी कुचक्र चलाऊंगा, सत्य का कंठ दबाऊंगा और झूठे आधारों पर जोर जबरदस्ती से ही सही पर अपनी पूजा करवाऊंगा। मैं अपनी क्रियाओं की विपरीतता के कारण परम शान्ति पाने तथा दुःख दूर करने के प्रयोजन के लिये भी सही उपाय काम में नहीं लूंगा बल्कि लालसाएँ और संग्रह बढ़ाकर या हिंसा से शासन चला कर शान्ति और सुख प्राप्त करने का गलत यल करूंगा । निश्चय है कि हिंसा से मैं किसी भी प्रयोजन की वास्तविकता तक नहीं पहुँच पाऊंगा ।
अतः क्रियाओं की इस विपरीतता से मुझे सबक लेना होगा और अन्य प्राणियों को भी समझाना होगा कि विपरीत क्रियाओं से सही प्रयोजन कभी पूरे नहीं होंगे। इनसे मात्र अशान्ति ही बढ़ेगी। मुझे चिन्तन करने से बोध हुआ है कि जहाँ क्रियाओं की विपरीतता का मापदंड हिंसा है, वहीं क्रियाओं के औचित्य का मापदंड अहिंसा है। मैं अपनी हिंसात्मक क्रियाओं को दृष्टा भाव से देखने के बाद ही जान सका हूँ और यही भाव अपनाने के लिये मैं अन्य प्राणियों से भी निवेदन करता हूँ क्योंकि दृष्टा भाव से हिंसा उसके हिंसा रूप में समझ आ जाती है तथा एक बार हिंसा को हिंसा रूप में समझ लेने के बाद उसे त्याग देने की इच्छा बलवती हो जाती है ।
इस प्रकार जीवन के इस दोराहे को यों समझें कि एक राह है हिंसा की और दूसरी राह है अहिंसा की । जो अहिंसा की राह पर बढ़ चलते हैं तो जीवन में अहिंसा का विकास हो जाता है।
६६