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और प्रयोजनों की सम्यक् पूर्ति की वस्तुस्थिति बन जाती है। किन्तु क्रियाओं की विपरीतता से जिसके कदम हिंसा की राह पर बढ़ गये और बाद में वह अपने कदम इस राह से नहीं हटा सका तो समझिये कि उस का भीषण दुष्प्रभाव उसके स्वयं के जीवन पर ही नहीं पड़ता बल्कि उस दुष्प्रभाव से उसके निकट का सामाजिक क्षेत्र भी कलुषित हुए बिना नहीं रहता।
वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रभाव मैंने देखा है कि क्रियाओं की समुचितता अथवा क्रियाओं की विपरीतता का अपना-अपना प्रभाव दूरगामी होता है जो उन क्रियाओं के कर्ता के अलावा सारे समाज पर भी न्यूनाधिक रूप में अवश्य पड़ता है। यह तो निश्चित ही है कि उन क्रियाओं का कर्ता उनसे पूर्णतया प्रभावित होता ही है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति द्वारा की जाने वाली क्रियाएँ व्यापक रूप से वैयक्तिक तथा सामाजिक प्रभाव छोड़ती हैं।
एक बात और कि संसारी मनुष्य का मूल बुराई में रहा हुआ होता है जिस कारण अच्छाई की अपेक्षा बुराई जल्दी और ज्यादा फैलती है। इस दृष्टि से क्रियाओं की विपरीतता का दुष्प्रभाव स्वयं पर और लोगों पर तेजी से फैलता है। एक व्यक्ति जब अपनी क्रियाओं की विपरीतता के कारण हिंसापूर्ण कार्यों में प्रवृत्त होता है तो वह उस हिंसा के द्वारा अपने ही स्वार्थों की पूर्ति करना चाहता है। उसकी इस चेष्टा में वह अन्य प्राणियों के हितों को कुचलता है। तब वह अपने दया भाव को छोड़ता रहता है तथा क्रूर बनता जाता है। अपने क्रूर व्यवहार से वह अपने लिये अधिकाधिक सम्पत्ति एवं सुख सुविधाओं की सामग्री का संग्रह करता है। उस संग्रह के प्रति तथा उस संग्रह के सहायकों के प्रति उसका राग भाव प्रबल होता है तो उसमें बाधा डालने वालों के प्रति द्वेष भाव से वह ग्रस्त हो जाता है। राग और द्वेष की प्रबलता से वह मोह, ममत्त्व तथा स्वार्थपोषण के घेरों में बंद हो जाता है। यही उसका जटिल मर्छा भाव बन जाता है। उस समय वह मानवीय गुणों को भुला देता है, बल्कि आत्मविस्मृत भी बन जाता है। उसकी वह आत्मविस्मृति उसके निकट सम्पर्क में रहने वाले व्यक्तियों में पहले और उन व्यक्तियों के माध्यम से सारे समाज में अपना कुप्रभाव फैलाती रहती है याने कि अधिकाधिक व्यक्ति हिंसा का आचरण करने लगते है और मोह-ममत्व के वशीभूत होते हुए मूर्छा को प्राप्त होते रहते हैं। इस प्रकार फैलता हुआ राग-द्वेष का दावानल समाज के स्वस्थ विकास को भस्म करता रहता है।
मैं अनुभव करता हूँ कि मैं भी ऐसे दावानल में जला हूँ क्योंकि उस समय क्रियाओं की विपरीतता मेरे व्यक्तित्व की अंग रूप बन गई थी। हिंसा से मेरा व्यक्तित्व विकृत हो गया था तथा मेरे जीवन का दुःखात्मक आधार बन गया था। मेरे जीवन की ऊर्जा ऊर्ध्वगामी होने की बजाय अधोगामी बन गई थी। मुझे प्रतीत हुआ कि हिंसापूर्ण आचरण से ऐसी पतनकारक दशा बनती ही है, फलस्वरूप मेरी चेतना सिकुड़कर अनुभूतिशून्य ही बनने लगी थी।
स्व-स्वरूप का विस्मरण ही मूर्छा अपनी चेतना की अनुभूति-शून्यता से मैं भूल गया कि मेरी आत्मा का मूल स्वरूप क्या है, उसके निज गुणों की शुभता कैसी होती है तथा आत्मा के वर्तमान स्वरूप को क्रियाओं की समुचितता, अहिंसा की कार्यान्वितता एवं मानवीय पुरुषार्थ की सक्रियता से किस प्रकार परमोञ्चल
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