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प्रयोजनों को भलीभांति समझता था। इस अवस्था का मेरी आत्मा की कर्मबद्धता पर दूरगामी प्रभाव पड़ता रहा और मेरा अनेक योनियों में जन्म-मरण चलता रहा ।
मैं इस जन्म के प्रारंभ में भी अपने मन, वचन एवं काया की क्रियाओं को इन प्रयोजनों के लिये संचालित करता रहा कि (१) मैं अपने वर्तमान जीवन की रक्षा कर लूं, (२) मैं दूसरों से प्रशंसा, आदर तथा पूजा पाऊं एवं (३) मैं भावी जीवन की उधेड़बुन और वर्तमान में मरण - भय से त्रस्त होकर परम शान्ति प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील बनूं व दुःखों को दूर करदूं । इन प्रयोजनों के कारण ही मुझे क्रियाओं का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त हुआ । किन्तु खेदपूर्वक मैं यह स्थिति स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मैंने और मेरी तरह अन्य प्राणियों ने क्रियाओं के प्रयोजनों का ज्ञान होने के बाद अज्ञानवश उन प्रयोजनों की पूर्ति के लिये हिंसा को ही साधन के रूप में ग्रहण किया । हिंसा के तीनों रूप काम में लिये गये – हिंसा की गई, हिंसा करवाई गई तथा हिंसा का अनुमोदन किया गया।
जो प्रयोजन ऊपर अंकित किये गये हैं, इस संसार में मनुष्यों की क्रियाएँ इनकी पूर्ति हेतु ही अधिकांशतः संचालित होती हैं तथा इन प्रयोजनों की अपेक्षा से ही मनुष्यों की क्रियाओं का मूल्यांकन किया जा सकता है। जैसे हम प्रयोजन सं. १ को ले लें। मैं जब यह सोचता हूँ कि मैं अपने वर्तमान जीवन की रक्षा करूं तो यह प्रयोजन कोई अनुचित नहीं है, कारण वर्तमान जीवन की रक्षा पर ही मेरा भावी आत्म-विकास आधारित रहेगा। यह एक प्रकार से ऐहिक जीवन की कामना है। प्रयोजन सं. २ भी ऐहिक कामना का ही रूपक है कि मुझे प्रशंसा, आदर और पूजा चाहिये । वांछनीय तो यह है कि मैं अपने सत्कार्यों तथा सत्प्रयासों को प्राथमिकता दूं और प्रशंसा, आदर आदि के बारे में न सोचूं । किन्तु यह कामना वहाँ तक भी क्षम्य मानी जा सकती है कि मैं अपनी इस कामना की पूर्ति वस्तुतः अपने सत्कार्यों व सत्प्रयासों के आधार पर ही करता हूँ। प्रयोजन सं. ३ के अनुसार मैं परम शान्ति प्राप्त करूं तथा दुःखों को दूर करूं - यह सर्वथा उचित है किन्तु मात्र उधेड़बुन और भयत्रस्तता से उस दिशा में मुडूं उसकी अपेक्षा सम्यक् ज्ञान तथा उन्नत विवेक से उस दिशा में अग्रसर बनूं- - यह अधिक समीचीन रहेगा।
मेरी इन प्रयोजनों की पूर्ति हेतु संचालित की जाने वाली क्रियाओं के मूल्यांकन में एक विशेष बात का भी मुझे ध्यान रखना होगा कि उस समय मैं येन केन प्रकारेण वह प्रयोजन पूरा कर लेने का ही यत्न करता हूँ अथवा इसकी पूरी सतर्कता रखता हूँ कि उस प्रयोजन की पूर्ति में संचालित की जाने वाली प्रत्येक क्रिया का रूप तथा अपनाया जाने वाला प्रत्येक साधन शुद्ध और अहिंसक भी होना चाहिये। जब-जब भी इस ओर से मैंने आँखें मूंदी है तो मेरे पैर बराबर बहके हैं और वे मेरी गति को पीछे मोड़ ले गये हैं। कई बार ठोकरें खाकर ही मैं सही चेतावनी ले सका हूँ कि इन प्रयोजनों की पूर्ति हेतु विधियुक्त क्रिया एवं अहिंसक साधन ही काम में लिये जाने चाहिए, इनकी पूर्ति ऐहिक कामनाओं के वशीभूत होकर नहीं करनी चाहिये तथा बिना अन्य प्राणियों के हितों को किसी भी प्रकार का आघात पहुँचाये बिना इनकी पूर्ति हेतु एक सीमा तक ही आगे बढ़ना चाहिये ।
क्रियाओं की विपरीतता
इन विभिन्न प्रयोजनों की प्राप्ति के लिये क्रियाएँ करने वाले मनुष्यों के सामने एक बड़ा खतरा भी मंडराता रहता है। खतरा यह कि वह इन प्रयोजनों को अपने ही स्वार्थों के घेरे में कैद कर लेता है याने कि वह कामना करता है कि कुछ भी करके वह 'अपने ही' जीवन की रक्षा करे
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