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इस परिप्रेक्ष्य में मैं वर्तमान मानव समाज की कुछ चर्चा करना चाहूँगा। कैसी परिस्थितियाँ हैं आज के इस समाज में और किन दुरावस्थाओं में छटपटा रहा है आज का मानव ? आज जिधर देखें उधर शोषण, दमन और अशान्ति का साम्राज्य दिखाई देता है जो निश्चय ही हिंसामय आचरण से उभरा हुआ है। एक ओर बहुसंख्य समुदाय बुनियादी भौतिक आवश्यकताओं तक से विहीन होकर अभावों के नित के प्रहारों से दम तोड़ रहा है तो दूसरी ओर निहित स्वार्थियों का छोटा समुदाय आम लोगों की मेहनत का शोषण करके अपने लिये धन और ऐश्वर्य के अम्बार खड़े कर रहा है। यही नहीं. वह वर्ग अपने स्वार्थों की रक्षा में राजनैतिक सत्ता पर भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कब्जा किये हुए है जिस सत्ता से शोषण की रखवाली में दमन का दौरदौरा भी चलाया जाता है। इन्हीं आधारों पर राष्ट्र आपस में टकराते रहते हैं जिससे सबके सामने विश्व युद्ध का खतरा मंडरा रहा है। कुल मिलाकर सब जगह और सबके मन में हिंसा का तांडव मचा हुआ है। हिंसा के बल पर ही अपने स्वार्थ पूरे किये जाते हैं, विषमता फैलाई जाती है और अन्याय व अत्याचार का कुचक्र रचा जाता है। सम्पन्न वर्ग शक्ति के मद में चूर होकर हिंसा का आचरण करता है तो अभावग्रस्त वर्ग भी विवशता के विक्षोभ में अपनी असफल हिंसा से पीड़ित रहता है। आश्चर्य तो यह है कि श्रेष्ठ उद्देश्यों की पूर्ति के लिये भी हिंसा का ही आश्रय लिया जा रहा है और सम्पूर्ण विश्व में हिंसा का नग्न रूप आतंकवाद रक्तपिपासु के रूप में अट्टहास कर रहा है।
और आज का सामान्य जन इस महाहिंसा के कुचक्र में बुरी तरह से पिसा जा रहा है। वह छटपटाता है कि उसका चहुंमुखी दुःख असह्य हो उठा है और उसकी अपने सुख की आशा मृगतृष्णा बन गई है। छोटे से शक्तिशाली वर्ग की अथाह तृष्णाओं के बीच में उसका अस्तित्व तक शून्य बनता जा रहा है। उसकी दुरावस्था पशुओं से भी बदतर हो गई है।
मैं देखता हूँ कि इस सर्वव्यापी हिंसा के कारण ही आज के मानव की यह घोर दुर्दशा है। भयंकर हिंसा से भयावह अशान्ति फैली हुई है और जितनी अधिक अशान्ति फैलती है उतनी ही अधिक भयत्रस्तता एवं अभावग्रस्तता से हिंसक आचरण में बढ़ोत्तरी होती है। हिंसा से अशान्ति और अशान्ति से हिंसा का दुष्चक्र अविरल गति से घूमता ही जा रहा है। इस समूचे वातावरण का जो सर्वाधिक घातक परिणाम सामने है, वह है संवेदनशीलता के अनुभाव का अधिकांश अभाव ।
संवेदनशीलता की डोर टूटती है तो मनुष्य मनुष्य से टूटता जाता है –सहृदयता एवं सद्भाव से हीन होता जाता है। सच कहें तो वह मनुष्यता एवं मानवीय गुणों से ही हीन हो जाता है। जब मनुष्यता का ही अभाव होने लगे तो मनुष्य में फूटने वाले ‘पशु' के कदाचार को कौन रोक सकता है? इस दृष्टि से एक हिंसक मनुष्य या समाज को परिवर्तित करने के लिये भी पुनः संवेदनशीलता के अनुभाव को उभारने का सद्प्रयल ही करना पड़ेगा। समझिये कि मैं आज के मानव
और मानव समाज की दुरावस्था को महसूस करता हूँ तो मुझे ही आगे बढ़कर संवेदनशील बनना होगा, मेरी संवेदनशीलता को दूसरों पर प्रकट करनी होगी तथा अपनी संवेदनशीलता की सहायता से दूसरों की मनोव्यथा एवं पीड़ा मिटानी होगी। इसी प्रक्रिया द्वारा एक-एक व्यक्ति के आश्रय से संवेदनशीलता के अनुभाव का विस्तार करना होगा। इस सहृदय विस्तार को कुछ हृदयहीन निहित स्वार्थी भले ही रोकने की कुचेष्टाएँ करें लेकिन यह निश्चय है कि भावनाभिभूत होकर बहुसंख्यक वर्ग संवेदनशील बनने लगेगा क्योंकि वह समझ जायगा कि उनके व्यथित हृदयों को मिलाने तथा सुख से सुख उपजाने की डोर संवेदनशीलता का अनुभाव ही है।