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करना तथा (१०) अनाबाध सुख – जन्म, जरा, मरण, भूख-प्यास आदि बाधाओं से मुक्त मोक्ष का सुख ।
उपरोक्त दस सुखों को दो भागों में वर्गीकृत कर सकते हैं - (१) भौतिक तथा (२) आध्यात्मिक। यहाँ यह समझ लें कि इन दोनों वर्गों के सुखों में पारस्परिक विरोध नहीं, अपितु सामंजस्य है। आत्म धर्म का माध्यम शरीर है और शरीर भौतिक पिंड होता है । इस भौतिक पिंड को भी उस सीमा तक सुखी रखना होगा, जिस सीमा तक वह आध्यात्मिक साधना की सफलता का सबल सहयोगी बना रहे। सुख के पहले के पांच भेद भौतिक वर्ग के माने जा सकते हैं तो अन्तिम पांच भेद आध्यात्मिक वर्ग के । यों देखें तो पहले के पांचों सुखों की उपलब्धि के बाद ही अन्तिम पांचों सुखों की खोज और प्राप्ति अधिक सरल, स्वाभाविक तथा स्थायी होगी ।
मैं कल्पना करता हूँ कि मुझे ये सुख प्रिय थे और हैं, इनकी मैं अभिलाषा रखता था और रखता हूँ तो उसके साथ ही मैं यह भी कामना करता हूँ कि ये सुख सभी प्राणियों को भी प्राप्त हो तथा इस उद्देश्य से मैं अपने समग्र आचरण को इस रूप में सन्तुलित तथा संयमित बनाऊं कि सबको ये सभी सुख उपलब्ध कराने में मैं किसी भी प्रकार से बाधक न बनूं बल्कि सहायक और सहयोगी बनूं। सबको सुख देने की मैं कामना करूंगा और चेष्टा रखूंगा और सभी इस प्रकार की कामना तथा चेष्टा से प्रेरित होंगे तो भला किसी को भी दुःख क्यों होगा ?
मैं एक और स्थूल तथ्य की ओर सभी प्राणियों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ कि ( सुख या दुःख का उद्भव अपने ही मन से होता है—पदार्थ या परिस्थितियाँ तो निमित्त मात्र बनती हैं और मन की एकाग्रता तथा संयमितता सधी हुई हो तो दुःखपरक निमित्तों को भी सुख के कारण रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। विचार ही में सुख होता है तथा विचार ही में दुःख ।
संवेदनशीलता का अनुभाव
दूसरे प्राणियों के मन की इच्छाओं को जानना, समझना तथा महसूस करना संवेदनशीलता कहलाती है। जो दूसरा प्राणी वेदता है, वह मैं भी वेदूं - यह है संवेदन | संवेदनशीलता के अनुभाव से आप्लावित होने पर चाहे मैं होऊं या अन्य कोई भी प्राणी हो, एक दूसरे के लिए कुछ ऐसा ठोस कार्य करने की प्रवृत्ति सजग हो उठती है जिससे मन में रही हुई इच्छा की सम्यक् पूर्ति हो या कि मन में रहा हुआ दुःख दूर होकर वहाँ सुखानुभव सुलभ हो । सच मानें तो संवेदनशीलता से ही समता-भाव का स्रोत उद्भूत होता है।
मेरी यह निश्चित मान्यता है कि मेरे हृदय के भीतर तथा इसी प्रकार सभी मनुष्यों के हृदयों के भीतर संवेदनशीलता का अनुभाव जितना अधिक गहरा, स्वभावगत और स्थायी बनेगा, उतना ही एक अहिंसक समाज का निर्माण सरल बन सकेगा। सच्चा समतामय एवं सुखी समाज वही हो सकता है जिसका एक-एक सदस्य एक दूसरे के प्रति पूर्णतया संवेदनशील बने तथा अपने समस्त व्यवहार में सतत रूप से संवेदनशील बना रहे ।
मैं कल्पना करता हूँ एक ऐसे समाज की कि जिसमें न शोषण हो और न अराजकता, न अनुशासनहीनता हो और न अशान्ति तथा न पारस्परिक तनाव हो और न कटुता एवं संघर्ष । कैसे हो सकता है ऐसे समाज का निर्माण ?
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