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चाहिये । समत्त्व योग की चरम उपलब्धि यकायक नहीं हो जाती है यह सही है, फिर भी उसके प्रति आस्था का जो अंकुरण सम्यक् रीति से कर दिया जाय तो एक दिन वह समता विशाल वृक्ष का आकार ले लेगी। यही नहीं, उस वृक्ष के मीठे फल अनुपम आनन्द भी प्रदान करेंगे। समता सम्यक् आस्था के अभाव में जो भी साधना की जायगी, उसका समावेश विराधनां की कोटि में ही होगा । इसके विपरीत स्वल्प मात्रा में भी साधी गई समतापूर्वक साधना लक्ष्य की दिशा में गतिमान नायगी । वही परम समत्व योग के समीप भी पहुँचा देगी।
साधक के मन में विषमता के बीज वपित कर उसकी आत्म चेतना पर अंकुरित होने लगे उससे पहले ही वह अपनी समस्त वृत्तियों को समता की साधना में नियोजित कर दे, जिससे उसकी साधना को अबाध गति प्राप्त हो सके। समत्व साधना से साधक को विचलित करने के लिये अनेक तूफान खड़े होते हैं, झंझावातों आघात चलते हैं, किन्तु उसे इन सबका अपनी समुन्नत आत्म शक्ति से मुकाबिला करना होगा। आंधियों और तूफानों के लिये सभी दिशाएँ द्रव्य और भाव रूप से खुली रहती हैं और यह कहना कठिन होता है कि किस दिशा से कितनी प्रबल आंधी उठेगी ? परंतु यदि साधक का अपना समत्त्व योग का आसन सुदृढ होता है तो वे आंधियाँ उमड़-घुमड़ कर भी अप्रभावी ही रहकर थम जायगी। कारण, समत्व साधना एवं समीक्षण ध्यान का परस्पर अभिन्न सम्बन्ध है । वे एक दूसरे के साथ पूरी गहराई और मजबूती से जुड़े रहते हैं । एक प्रकार से समीक्षण ध्यान को समता साधना का ही नाम दिया जा सकता है। समता पूर्वक सबकुछ देखना ही तो समीक्षण है।
समीक्षण की अन्तर्गत भावना को और अधिक स्पष्टता से समझ लें । इस देह के मृत्पिंड में सर्वशक्तिमान् चैतन्य अपनी समस्त शक्तियों को संगोपित करके रहा हुआ है और उसके द्रव्य तथा भाव रूप अनेक द्वार हैं। उन्हीं द्वारों से तथा प्रधानतया काम-क्रोध आदि विकारों के द्वारों से अथवा किसी भी एक द्वार से समता साधना के बाधक तत्त्वों का प्रवेश संभव हो सकता है। ऐसी वेला में यदि अन्तर्चेतना की शक्ति विवेक के दीपक के साथ जागृत न हो अथवा बाधक तत्त्वों का ज्ञान न हो तो वे बाधक तत्त्व जो अनादि काल से अपना आसन जमा कर बैठे हुए हैं, मलिन वृत्तियों को उभारेंगे तथा अल्प विकसित समता साधना के अंकुरों को उखाड़ कर ध्वस्त बना देंगे । इसलिये समीक्षण ध्यान की इस प्रक्रिया में समता की साधना के लिये सतत सविवेक जागृति की अपेक्षा रहती है।
सतत विवेक जागृति के दीपक को प्रदीप्त रखकर ही साधक समता की ज्योति को प्रज्वलित रख सकता है। कल्पना करें कि साधक समता की साधना में तन्मय बना हुआ है और उसकी आत्मलीनता अभिवृद्ध होती जा रही है, उस समय समझिये कि उसके कानों में इस प्रकार के विषम कटु शब्द आते हैं कि एक बार उसकी मनोभूमि पर विषमता की प्रतिध्वनि गूंजती है जो उसकी साधना की समता धारा को आन्दोलित कर देना चाहती है, तब भी वह अपनी समता धारा को शान्त - प्रशान्त बनाई रखे तो उसे समझना चाहिये कि उसकी साधना में परिपक्कता की स्थिति आने लगी है। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि वह विषमतापूर्ण कटु स्वर उसके ज्ञान केन्द्र को अस्थिर बनाकर विपथगामी बना दे तो वह भी विषम चिन्तन लिये विवश बन जाता है। यह इस कारण होता है कि ज्ञान केन्द्र अपने क्रिया केन्द्रों को सूचित कर देता है, विषमता के फूट जाने के
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