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बहुत आवश्यक है अथवा यों कहा जा सकता है कि संकल्प रूपी नगर की सुरक्षा के लिये पवित्र विचारों का उसके चारों तरफ कोट बहुत जरूरी है ।
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विचारों के अनुसार ही जीवन के स्वरूप का सृजन होता है ऐसी जैन दर्शन या कर्म सिद्धान्त की निश्चित मान्यता है । वास्तव में तो वर्तमान काल के विचार ही भावी जीवन निर्माण की रूपरेखा बनाते है। अतः इस संदर्भ में विचारों की महत्ता और अधिक बढ़ जाती है कि आज के विचार आचार ही कल के जीवन की नींव रखेंगे।
ये विचार यदि अप्रशस्त होंगे तो जीवन अप्रशस्तता की दिशा में गति करेगा और आगामी जीवन को भी अप्रशस्तता का रूप देगा। इसके विपरीत प्रशस्त विचारों के द्वारा वर्तमान तथा अनागत दोनों जीवनों को समुज्ज्वल बनाया जा सकता है। जिसकी जैसी भावना होती है, उसकी सिद्धि भी वैसी ही होती है। ध्यान साधना के परिप्रेक्ष्य में विशुद्धतम विचारों का सुप्रभाव सूक्ष्म एवं सूक्ष्मतम शरीरों पर अंकित हो जाता है और यदि आगामी जीवन का आयुष्य-बंध उन विचारों के दौरान हो जाय तो सूक्ष्मतम शरीर के साथ अनुबंधित वे विचार अपने भविष्य को याने कि आगामी जन्म को भव्यता प्रदान कर देते हैं । इस दृष्टि से साधानानुकूल वातावरण, आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल, स्वस्थ शरीर तथा आध्यात्मिक संयोग की अनुकूलताएँ उसे प्राप्त हो जाती है जिनके माध्यम से फिर साधना का मार्ग भी प्रशस्त हो जाता है। तदनुसार गति करने पर अबाधित आनन्द को पाया जा सकता है।
सत्संकल्पों के समान ही सद्विचारों की ऊर्जा प्राप्त होने से साधना की गहराई में उतरते हुए साधक का इस प्रकार का प्रयत्न होना चाहिये कि मैं अविलम्ब अपने गंतव्य पथ की तरफ आगे बढ़ता जाऊँ और अचल सिद्ध स्वरूप का वरण करलूं । इस दृढ़ संकल्प में संशय को कोई भी स्थान नहीं दिया जाना चाहिये । अटल निष्ठा का संकल्प साथ हो और हो किसी भी व्यवधान से बाधित न होने की प्रखर भावना । तब विशुद्ध और मंगल विचारों व संकल्पों की सावधानी सफलता की ओर साधक को अग्रगामी बना देगी।
समीक्षण की पूर्णता
समीक्षण ध्यान की परिपूर्णता के लिये तब तीसरे आयाम में निर्धारित भविष्य के संकल्पों में समता के संकल्प का उद्भव हो जाता है । समता का सर्वत्र प्रसार ही समीक्षण ध्यान की परिपूर्णता का प्रदीप्त प्रमाण बनता है ।
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तब साधक के चित्त के सृजन का पहला सूत्र बन जाता है समता का सूत्र 1 समग्र साधना का मूल हो जाती है समता की सरल भावना । जब तक समता की साधना सर्वोच्च लक्ष्य के रूप में नहीं साधी जाती है, तब तक सफलता नहीं मिलती है और अन्तः प्रवेश मात्र एक काल्पनिक उड़ान बन कर अवरुद्ध हो जाता है । विषमता की ज्वालाएं सुलगती रहेगी तो उसमें साधना का पल्लवन असंभव ही बना रहेगा। बिना समता के अन्तःसाधना चाहे जितनी कर ली जाय, उसका धरातल भी तैयार नहीं हो सकेगा ।
अतः सम्पूर्ण जीवनी शक्ति का समर्पण समता के लक्ष्य के लिये ही होना चाहिये । समता को ही अध्यात्म की प्राण ऊर्जा माननी चाहिये और जीवन में समता के संवर्धन का संकल्प लेना
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