SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का संतुलन बनेगा उस दिन समाधान मिलेगा कि मनुष्य में हिंसा का जन्म कैसे हुआ और उसमें अहिंसा का कितना विकास संभव है? संकल्प और सिद्धि अहिंसा की दो अवस्थाएँ-संकल्प एवं सिद्धि बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। दोनों में भूमिका भेद स्पष्ट है। इस अंतर को स्पष्ट करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने कहा-एक व्यक्ति एक दिन का दीक्षित साधु है। उसने अहिंसा का संकल्प लिया है। हम नहीं कह सकते कि उसकी अहिंसा तेजस्वी हो गई, उसकी साधना तेजस्वी हो गई या उससे संघ या शासन तेजस्वी हो गया। जो एक, दस या बीस वर्ष का दीक्षित साधु है जिसने अपनी अहिंसा को अनुकूलता, प्रतिकूलता, सर्दी-गर्मी आदि सब प्रकार के विरोधी द्वन्द्वों की आग में पका-पकाकर सिद्ध कर लिया है, उसके लिए हम कह सकते हैं कि वह स्वयं तेजस्वी बनता है, संघ तेजस्वी बनता है और शासन तेजस्वी बनता है। यदि भूमिका भेद की बात को भुलाकर, साधु को मात्र साधु मान लें, साधना को मात्र साधना ही मान लें तो भ्रम पैदा होगा। उसके कालक्रम से होने वाली परिणाम शुद्धि के आधार पर भूमिका भेद से आने वाले परिणामों पर ध्यान दिये बगैर कोई निर्णय लेना भूल है। इस प्रकार संकल्प और सिद्धि की अहिंसा में भूमिका भेद समझ कर ही, इनके आधार पर अहिंसा का पूर्ण विकास किया जा सकता है। अहिंसा बनाम : आत्मयज्ञ अहिंसा को आत्म-यज्ञ की संज्ञा क्यों और कब दी गयी? ऐतिहासिक दृष्टि से यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। समाधान की खोज में कई तथ्य उजागर होते हैं। भगवान् नेमिनाथ के समय में अहिंसा धर्म का बहुत प्रचार हुआ। वासुदेव कृष्ण अहिंसा प्रधान जीवन जीने की दृष्टि से, सूक्ष्म जीव और वनस्पति जीवों की हिंसा से बचने के विचार से चातुर्मास में राज्य-सभा का आयोजन भी नहीं करते थे। छान्दोग्यउपनिषद् के अनुसार- 'घोर आंगिरस ऋषि कृष्ण के आध्यात्मिक गुरु थे। उन्होंने कृष्ण को आत्मयज्ञ की शिक्षा दी। उस यज्ञ की दक्षिणा है-तपश्चर्या, दान ऋजुभाव, अहिंसा और सत्य वचन।।1। इसके आधार पर यह कल्पना बनती है कि घोर आंगिरस भगवान् नेमिनाथ का ही नाम होगा। चूंकि 'घोर' शब्द जैन मुनियों के आचार और तपस्या का प्रतीक है। आत्म-यज्ञ की प्रेरणा का प्रसंग क्यों पैदा हुआ? इसकी पृष्ठभूमि में पायेंगे कि उस समय यज्ञ प्रक्रिया धर्माराधना का एक प्रमुख अंग बन गयी। उपनिषद् में धर्मानुष्ठान के तीन स्कंध की चर्चा मिलती है, जिसमें-'प्रथम स्कंध यज्ञ, दूसरा स्कंध स्वाध्याय और तीसरा दान बतलाया है। यज्ञ विहित हिंसा भी अहिंसा में समाहित होने लगी।' संभव है उस हिंसा में लिप्त जनमानस को प्रतिबोध देते हुए अहिंसा यज्ञ की प्रेरणा दी गई। भगवान् महावीर के समय भी यज्ञ की परंपरा जीवित थी। यज्ञ में होने वाली घोर हिंसा व बर्बर नृशंसता से भगवान् महावीर के शुद्ध हृदय में आत्म संवेदन का एक सघन ज्वार फूट पड़ा। उनकी अहिंसात्मक वाणी ने बड़े-बड़े यज्ञनिष्ठ ब्राह्मणों को अहिंसा के पथ पर समारूढ़ कर नई क्रांति मचा दी। इन्द्रभूति आदि ग्यारह यज्ञविद् प्रकांड विद्वानों का एक-एक कर महावीर का शिष्यत्व स्वीकारना दीक्षित होना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। यज्ञानुष्ठान से उपरत हरिकेशबल मुनि के तपोबल से आकृष्ट अनेक ब्राह्मण कुमारों ने आत्मयज्ञ अहिंसा एक : संदर्भ अनेक / 59
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy