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________________ के स्वरूप की जिज्ञासा प्रकट की। “हे क्षमाश्रमण हम ऐसा कौन-सा यज्ञ अदा करें जिससे हमारे क्लिष्ट कर्म दूर हों। हे यज्ञ पूजित मुनि! विज्ञ मानव किसे श्रेष्ठ (यज्ञ) कहते हैं उसी सत्पथ का निर्देश करें?' सोमदेव की इस जिज्ञासा का समाधान किया-'मन और इन्द्रियों का दमन करने वाले छः जीव निकाय की हिंसा नहीं करते, महाव्रती हैं, मान-माया त्यागी हैं, संवर युक्त असंयमी जीवन की इच्छा नहीं करते, जो शुचि हैं और देह के ममत्व त्यागी हैं, वह यज्ञों में श्रेष्ठ महायज्ञ करते हैं।' महायज्ञ का ऐसा स्वरूप सुनकर सोमदेव के मन में यज्ञ में काम आने वाली वस्तुओं के विषय में जिज्ञासा पैदा हुई। प्रश्न किया-'भिक्षो! तुम्हारी ज्योति-अग्नि कौनसी है? ज्योति-स्थान (अग्नि स्थान) कौनसा है? घी डालने की करछियाँ कौनसी हैं? अग्नि को जलाने के कण्डे कौनसे हैं? ईंधन और शांतिपाठ कौनसे हैं? और किस होम से तुम ज्योति को हुत (प्रीणित) करते हो?' इस जिज्ञासा को समाहित करते हुए मुनि ने अहिंसक यज्ञ में काम आनेवाली सामग्री का चित्रण किया-'तप ज्योति है। जीव ज्योति स्थान है। योग (मन, वचन और काया की सत् प्रवृत्ति) घी डालने की करछियाँ हैं। शरीर अग्नि जलाने के कण्डे हैं। कर्म ईंधन है। संयम की प्रवृत्ति शांति पाठ है। इस प्रकार मैं ऋषि-प्रशस्त (अहिंसक) होम करता हूँ।112 हरिकेशबल मुनि के मुख से अहिंसक महायज्ञ का चित्रण सुनकर ब्राह्मण कुमार हिंसक यज्ञ से विमुख होकर अहिंसा के राजपथ पर चल पड़े। यह हिंसा पर अहिंसा की सर्वतोमुखी विजय थी। घोर हिंसा सर्वथा अहिंसा में बदल गयी। इस प्रकार हिंसक यज्ञ के उन्मूलन में अहिंसक यज्ञ की स्थापना हुई। संभव है कि इस प्ररूपणा के आधार पर अहिंसा का अपर नाम आत्मयज्ञ पड़ा हो। अहिंसा और ब्रह्मचर्य जीवन में अहिंसा को प्रतिष्ठित करने के अनेक मार्ग हैं, उनमें एक है ब्रह्मचर्य का अनुशीलन। अहिंसा का संबंध ब्रह्मचर्य से कैसे है इसे स्पष्ट करते हुए कहा-'अहिंसा और ब्रह्मचर्य-ये दोनों साधना के आधारभत तत्त्व हैं। अहिंसा अवैर-साधना है। ब्रह्मचर्य जीवन की पवित्रता है। अवैर भाव के बिना आत्म साम्य की अनुभूति और पवित्रता के बिना विकास का मार्ग दर्शन नहीं हो सकता।' ब्रह्मचर्य का अर्थ है मन और इन्द्रिय का संयम। ब्रह्मचर्य का एक व्यापक अर्थ रहा है कि ब्रह्म का चरण होता है, वह है ब्रह्मचर्य। ब्रह्म का अर्थ ज्ञान, परमात्मा और गुरुकुलवास में भी होता है। अहिंसा में ब्रह्मचर्य की व्यापकता का चित्रण महाप्रज्ञ ने किया- 'मैं अहिंसक हूँ, अहिंसा मेरा साधन है, अभेद मेरा साध्य है। अहिंसा सत्य में व्याप्त है, सत्य अहिंसा से। ब्रह्मचर्य दोनों में व्याप्त है। ब्रह्मचर्य में मेरी श्रद्धा दृढ़ होती है तो अहिंसा और सत्य का विकास होता है। जाहिर है कि ब्रह्मचर्य की शिथिलता सत्य और अहिंसा को खंडित कर देती है। अतः ब्रह्मचर्य को समझे बिना व्यक्ति न सत्य-निष्ठ बन सकता है न ही अहिंसक। वासना की शुद्धि अहिंसा से होती है। अहिंसा यानि समता । समता यानि आत्म-दर्शन । ब्रह्मचर्य से अहिंसा आती है और अहिंसा से ब्रह्मचर्य। दोनों एक ही साध्य के दो पार्श्व है। इनमें पौर्वापर्य नहीं है। ब्रह्मचर्य का संबंध भोजन से भी है। अतः भोजन का विवेक करना अहिंसा और ब्रह्मचर्य-इन दोनों दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। जीव हिंसा का हेतुभूत आहार जैसे सदोष होता है। वैसे ही ब्रह्मचर्य में बाधा डालने वाला आहार भी सदोष है। 60 / अँधेरे में उजाला
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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