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________________ क्यों न हो ।' दया से तात्पर्य अहिंसा - करुणा की भावना से है। जिसके हृदय में वह नहीं है वह उच्च कुल में पैदा होने पर भी शुद्र ही कहलायेगा । स्पष्ट रूप से मनुष्य दया के परिणामों से महान् बनता है न कि किसी जाति विशेष में जन्म लेने से । बुद्ध की दृष्टि में 'संसार में नाम - गोत्र कल्पित है व व्यवहार मात्र है।' इस संदर्भ में भगवान् बुद्ध के हृदय में व्याप्त असीम प्राणीजगत् के प्रेम भाव को जान सकते हैं। नाम - गोत्र के आधार पर किसी को श्रेष्ठ या हीन मानना भूल है । ये तो मात्र उपचार हैं। ऊपरी तौर पर बौद्ध दर्शन में अहिंसा का सूक्ष्म स्वरूप नजर नहीं आता पर, ऐसी बात नहीं है । भगवान् बुद्ध ने प्राणीजगत् में व्याप्त दंड एवं मौत की भय संज्ञा को जाना और उसी के आधार पर अहिंसा का प्रतिपादन किया- 'दण्ड से सब डरते हैं, मृत्यु से सब भय करते हैं। दूसरों को अपनी तरह जानकर, मनुष्य किसी दूसरे को न मारे, न मरवाए। 3 प्रस्तुत मंतव्य से स्पष्ट है कि पर-प्राण व्यपरोपण का निषेध आत्मतुला के धरातल पर हुआ है । बौद्ध दर्शन में अहिंसा की पहुँच-पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति तक पहुँची या नहीं कहना कठिन है। पर विनयपिटक में यह स्पष्ट उल्लेख है - जान बूझकर प्राणि युक्त (अनछाने) पानी पीने वाले भिक्षु को 'पाचित्तिय' दोष लगता है।" यह निर्देश बौद्ध दर्शन में अहिंसा के सूक्ष्म रूप को प्रकट करता है । जन्म-मृत्यु के चक्रव्यूह से निकलने हेतु भगवान् बुद्ध ने तपस्या रूप साधना को अपनाया । उनका ज्ञान चार आर्य सत्यों में निहित है - 1. दुःख है । 2. दुःख का कारण है, 3. दुःख का निरोध है । 4. दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद अर्थात् साधन है । उन्होंने जगत् के दुःखों से छूटने के लिए अष्टांगमार्ग का प्रतिपादन किया है । बुद्ध की दृष्टि में अहिंसा की चर्चा उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है जितनी की दुःख मुक्ति का विषय है । भगवान् बुद्ध ने जिस अहिंसा का प्रतिपादन किया उसका स्वरूप करुणा व मैत्री प्रधान है। महाप्रज्ञ ने लिखा- 'गौतम बुद्ध के अनुसार मैत्री और करुणा अर्थात् प्राणीमात्र के प्रति प्रेम और सभी जीवों के प्रति दया का भाव ही अहिंसा है। उन्होंने अहिंसात्मक कर्म को सम्यक् कर्म बतलाया है तथा अहिंसा के मार्ग में बाधक शस्त्र, प्राणी, मांस, मदिरा और विष के व्यापार को त्याज्य कहा है। '' विमर्शतः बौद्ध दर्शन की अहिंसा का आधारभूत तत्त्व मैत्री और करुणा है । अतः जितना विश्लेषण करुणा का हुआ उतना अहिंसा का नहीं हो सका। किंतु अहिंसा एवं करूणा को कभी पृथक् नहीं किया जा सकता । बौद्ध दर्शन में अहिंसा का उपदेश करुणा की भावना से निष्पन्न प्रतीत होता है । अहिंसा स्वतंत्र न होकर करुणा की भावना से अनुस्यूत होने का मुख्य कारण व्यवहारिक होना भी लगता है । वर्तमान की समस्याओं से निपटने के लिए सामाजिक धरातल पर अहिंसा को उतारने में करूणा का अवलम्बन महत्त्वपूर्ण है। योग दर्शन में अहिंसा विभिन्न दर्शनों में अहिंसा की परिभाषा, व्याख्या- विश्लेषण अपने-अपने अभिमत के अनुरूप की गई है । पर इसका मूल आशय प्रायः मिलता जुलता है । पातंजल योग दर्शन में 'सब प्रकार से सब कालों में सब प्राणियों के प्रति अनभिद्रोह यानी अवैर अहिंसा है। इस परिभाषा में अहिंसा की व्याख्या अनभिद्रोह के आधार पर की गई । द्रोह का निबंध या अभाव ही अहिंसा है । द्रोह का अर्थ है - दूसरों का अहित चिंतन, प्रतिहिंसा का भाव, वैर, द्वेष, अपराध या जान से मारना। इसके विपरीत दूसरों का अहित न करना, बदले की भावना न रखना, शत्रुता - विद्वेष नहीं रखना, पर के प्रति अपराध नहीं करना तथा उनका प्राण हरण नहीं करना अहिंसा है। विभिन्न दर्शनों में अहिंसा / 53
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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