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________________ सूक्ष्म दृष्टि से अनेकांत, स्याद्वाद और अपरिग्रह अहिंसा के ही रूपान्तर है। डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल ने लिखा-'अहिंसा की ही दिव्य ज्योति, विचार के क्षेत्र में अनेकांत, वचन व्यवहार के क्षेत्र में स्याद्वाद और सामाजिक तथा आत्मशांति के क्षेत्र में अल्प परिग्रह या अपरिग्रह के रूप में प्रकट होती है। ये सब परस्पर अंतः संबद्ध है।'' प्रस्तुत मंतव्य में जैन दर्शन के मौलिक सिद्धांतों का समावेश है। जैन धर्म के मुख्य सिद्धांत-अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह है। जैन ग्रंथों में अहिंसा के आन्तरिक विकास की चार विधियां बतलायी जिन्हें भावनाओं के नाम से अभिहित किया गया। मैत्री, प्रमोद (मुदिता), कारूण्य (करुणा) और माध्यस्थ्य (उपेक्षा)। इनकी अहिंसा के विकास में क्या भूमिका रहती है, यह विमर्शनीय है। प्रमोद भावना का अर्थ है-जिन व्यक्तियों में जो अच्छाइयाँ हैं, जो सद्गुण हैं और जो योग्यताएँ हैं उन्हें देखकर प्रसन्न होना। मन में प्रमोद की अनुभूति करना। कारुण्य भावना-अहिंसा के विकास हेतु, 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के तत्त्व की पहचान हो। इसके लिए कारुण्य भावना मनुष्य में सहानुभूति और आत्मीयता को विकसित करती है। जो व्यक्ति अज्ञानी है, व्यसनग्रस्त है, दुःख और दारिद्रय से क्लांत है, उनके दुःख को दूर करने की अभिलाषा कारुण्य भावना कहलाती है। माध्यस्थ भावना का दर्शन है उपेक्षा भाव का विकास। अपने आप पर संयम रखना अहिंसा का प्रथम अंग है। विकट समय में भी जो संतुलित रह सकता है वही अहिंसा के मर्म को पहचानता है। सामाजिक धरातल पर भी इसका अपना महत्त्व है। ये भावनाएं अहिंसा के विकास में योगभूत बनती हैं। इनका विकास सामाजिक परिवेश को पवित्र बनाने में महत्वपूर्ण है। जैन दर्शन की अहिंसा से यह ज्ञात होता है कि इसमें कठोरता और सुगमता का अपूर्व संगम है। यद्यपि जैन अहिंसा को आम धारणा में कठोर माना जाता है पर वास्तविकता इससे भिन्न है। जैन धर्म साक्षात् द्रष्टा द्वारा प्रतिपादित धर्म होने से उसमें हिंसा-अहिंसा का सूक्ष्म विवेक किया गया है। साथ ही जैन धर्मावलंबी साधक का सर्वोच्च ध्येय ‘मुक्ति' का वरण होने से उसकी प्राप्ति हेतु अखंड (सूक्ष्म) अहिंसा की साधना अनिवार्य बतलाई गयी है। बौद्ध दर्शन में अहिंसा अहिंसा का प्रतिपादन आस्तिक दर्शन की धुरा है। सभी आस्तिक दर्शन इसे अपने-अपने चिंतन से परिभाषित एवं व्याख्यायित करते हैं। बौद्धदर्शन में-दस कुशल धर्म स्वीकृत हैं उनमें अहिंसा का प्रथम स्थान है। यद्यपि बौद्ध धर्म करुणा के लिए प्रसिद्ध है, पर अहिंसा का विमर्श उसमें बिल्कुल ही न हो ऐसा नहीं है। भगवान बुद्ध ने अहिंसा को परिभाषित करते हुए लिखा-'त्रस और स्थावर सबकी घात न करना अहिंसा है, वही आर्यता है।' स्पष्टतया बौद्ध अहिंसा में प्राणवध का निषेध प्रतिपादित है। साथ ही आर्यता का लक्षण भी अहिंसा ही बनी। भगवान् बुद्ध ने कहा- 'जंगम और स्थावर प्राणियों का प्राणवध न स्वयं करें न किसी अन्य से करवाएं और न किसी करने वाले का अनमोदन करें। 92 यह अहिंसा की सूक्ष्म मीमांसा का साक्षी है। इसमें कृत, कारित और अनुमोदन की क्रिया रूप अहिंसा का प्रतिपादन है। भगवान बुद्ध ने अहिंसा के विकास हेतु नाना प्रकार के उपदेश प्राणीजगत् में दिये। उन्होंने कहा-'जिसके हृदय में दया नहीं उसे शूद्र ही समझना चाहिए। चाहे वह किसी भी कुल में उत्पन्न 52 / अँधेरे में उजाला
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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