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________________ व्यवहार दृष्टि । इसमें मूलभूत आत्म परिणामों को लक्षित करके अहिंसा के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है । प्रतिपादन की यह गूढ़ अभिधा हर किसी के लिए समझ का सरल विषय नहीं है। पर, तत्त्व की गुरुता का जो निदर्शन इस दृष्टि में होता है वह अपने आपमें मौलिक है । 'निश्चय - दृष्टि से आत्मा ही अहिंसा है और वही हिंसा ! अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है और जो प्रमत्त है वह हिंसक है । हिंसा और अहिंसा का मूल स्रोत आत्मा की प्रमत्त - अप्रमत्त आंतरिक अवस्था विशेष का नाम । अथवा हिंसा और अहिंसा का मूल स्रोत आत्मा की असत् और सत् प्रवृत्ति मात्र है । जीव घात या जीव रक्षा उसकी मूल कसौटी नहीं है । यह तो मात्र उपचार है अथवा व्यवहार दृष्टि है । उभय दृष्टि का एक साथ चित्रण करते हुए कहा गया है- 'जहां प्रवृत्ति असत् होती है और जीवघात भी होता है, वहाँ व्यवहार और निश्चय दोनों दृष्टियों से हिंसा होती है । जहाँ प्रवृत्ति सत् होती है और जीव-घात भी नहीं होता, वहाँ व्यवहार और निश्चय दोनों दृष्टियों से अहिंसा होती है । प्रवृत्ति सत् होती है और जीव-घात हो जाता है, वहाँ निश्चय - दृष्टि से अहिंसा और व्यवहार दृष्टि से हिंसा होती है । प्रवृत्ति असत् होती है और जीव-घात नहीं होता, वहाँ निश्चय-दृष्टि से हिंसा होती है।87 इस चतुरभंगी में हिंसा-अहिंसा के मूल आशय को प्रकट किया गया है। इसका मंथन पूर्वक अनुशीलन ही अहिंसा विकास का मूल आधार है । वीतराग वाणी में अहिंसा का जो नैश्चयिक स्वरूप प्रकट हुआ वह बड़ा सूक्ष्म है। चूँकि की अनुभूति से जो तत्त्व प्रतिपादित होता है उसका रहस्य मर्म स्पर्शी होता है । निवृत्ति मूलक अहिंसा की प्रतिपादना का मूल अव्यक्त ही रहता है । वह तो आत्म प्रदेशों में ही अनुभूति का विषय बनता है । इस तथ्य की प्रस्तुति वीतराग वाणी में हुई - ' राग आदि की अनुत्पत्ति अहिंसा है और उनकी उत्पत्ति हिंसा है।' इससे प्रकट होता है कि हिंसा-अहिंसा का सीधा संबंध आत्मपरिणामों से है । वे दोनों आत्मा के ही विकारी - अविकारी परिणाम है। वस्तुतः चिद्विकार ही हिंसा है, झूठ, चोरी आदि चिद्विकार हैं अतः हिंसा है । अध्यवसाय की प्रशस्त और अप्रशस्त, पवित्र और अपवित्र स्थिति ही हिंसा - अहिंसा की कारक है । निश्चय दृष्टि से - ' अध्यवसाय से ही कर्म का बंध होता है, फिर कोई जीव मरे या न मरे । निश्चय के अनुसार संक्षेप में जीवों के कर्म-बंध का यही स्वरूप है। 88 हिंसा का यह अतिसूक्ष्म रूप अनेक उदाहरणों में मिलता है - प्रसन्नचन्द्र राजर्षि, तन्दुलमत्स्यादि । भगवान् महावीर ने इसी आशय से मानसिक अहिंसा को सर्वोपरि स्थान दिया, क्योंकि हिंसा की मूल भित्ति मानसिक हिंसा ही कहलाती है । जैन धर्म में अहिंसा के विकास का आधारभूत तत्व है - संयम । जर्मन विद्वान अलबर्ट स्वेजर ने अपने ग्रंथ 'इंडियन वाट एण्ड इट्स डेवलपमेंट' में इस तत्व को बड़ी गम्भीरता से प्रतिपादित किया है । उनके मतानुसार - 'यदि अहिंसा के उपदेश का आधार सचमुच ही करुणा होती तो यह समझना कठिन हो जाता कि उसमें न मारने, कष्ट न देने की ही सीमाएँ कैसे बंध सकी और दूसरों को सहायता प्रदान करने की प्रेरणा से वह कैसे विलग रह सकी है।४७ उनकी दृष्टि जैन अहिंसा की सूक्ष्म मीमांसा को समझने में पैनी थी । यथार्थ के धरातल पर जैन दर्शन में अहिंसा का आधार संयम है। हिंसा का बहुआयामी प्रतिपादन जैन दर्शन की मौलिक विशेषता है । हिंसा-अहिंसा का स्वरूप इस दर्शन में बहुत व्यापक है । मानसिक अहिंसा के दृष्टिकोण से विचारों का यथार्थ प्रतिपादन अनेकांत दर्शन, वाचिक अहिंसा हेतु समस्त पक्षों को अपने में समाहित कर लेने वाली स्याद्वादमयी वाणी, कायिक अहिंसा के लिए गृहचारी के लिए अणुव्रत एवं मुनियों के लिए महाव्रत का आचरण व्यपदिष्ट हैं । विभिन्न दर्शनों में अहिंसा / 51
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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