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भगवान् महावीर अहिंसा के उग्र निरूपक एवं प्रखर समीक्षक थे। जिसकी पृष्ठभूमि में हिंसाम क्रूरता का ताण्डव नृत्य प्रतिबिम्बित था । क्रूर हिंसा के साथ-साथ क्रूर दंड देने की प्रवृत्ति बढ़ रही थी। सामान्य अपराधी को भी विशेष दंड दिया जाता। रोमांचक दंड दिये जाने का वर्णन मिलता है - ' अपने समाश्रित दास, प्रेष्य, भृतक, धार्मिक, कर्मकर और भोग पुरुष आदि के किसी छोटे अपराध होने पर मालिक स्वयं उन्हें दंडित करता था । वह कहता - इसे दंडित करो, मुंडित करो और इसका तिरस्कार करके इसको मारो। इसको बेड़ी, जंजीर और सांकल आदि से काष्ठादि पर बाँध दो। इसके प्रत्येक अंग को संकुचित कर डालो। इसके हाथ, पैर, नाक, ओष्ठ, शिर, मुख और जननेन्द्रिय का छेदन करो। इसके हृदय, नेत्र, दाँत, वदन, जिह्वा और वृषणों का उत्पाटन करो। इसे वृक्ष से लटका दो। इसे भूमि पर रगड़ दो। इसके शरीर को शूल से टुकड़े-टुकड़े कर डालो। इसके घावों पर नमक छिड़का दो । इसको अग्नि ज्वाला से जला दो। इसके मांस को कोड़ी के सदृश बनाकर इसी को खिलाने का प्रबन्ध करो। इसके भत्त-पान का विच्छेद कर दो। इसको यावज्जीवन बंधन में रखो। इसे बेमौत मार डालो।'' इस प्रकार की क्रूर दंड परंपरा के प्रतिकार में भगवान् महावीर ने अहिंसात्मक उचित न्याय विधि का प्रवर्तन किया। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि अल्प दंडनीय को अधिक दंड देने वाला प्रत्युत स्वयं दंड का भागी बनता है । दंड देने का अधिकारी वही है जिसे सम्यक् दंड व्यवस्था का बोध हो ।
तात्कालीन हिंसामयी विषम प्रवृत्तियाँ देखकर भगवान् महावीर का हृदय द्रवित हो उठा। उस समय हिंसा का बोलबाला था। चारों ओर हिंसक क्रियाकाण्डों की धूम मची थी । यज्ञों में मूक प्राणियों की बलि दी जाती थी, साथ ही सामाजिक विषमता का साम्राज्य था । मनुष्य मनुष्य में भेदरेखा खींची हुई थी। ऐसे ही हृदयद्रावक दृश्य देखकर भगवान् महावीर का हृदय कांप उठा। उन्होंने इस प्रकार के हिंसक वातावरण को बदलने का प्रण किया। निर्भय होकर अहिंसक क्रांति की । उन्होंने उच्च स्वर में कहा - ' याज्ञिकी हिंसा हिंसा न भवति' यह सिद्धांत गलत है। हिंसा हर अवस्था में हिंसा ही रहती है । वह किसी भी उद्देश्य से की जाए, उसका हिंसापन मिट नहीं जाता । जातिवाद का खंडन किया और कहा - त्याग और तपस्या ही विशेष है, कोई जाति विशेष से नहीं। उद्घोषणा की - 'सब मनुष्य समान हैं, कोई अतिरिक्त अथवा हीन नहीं ।' अपने कथन की पुष्टि में उन्होंने अहिंसात्मक यज्ञ की प्ररूपणा की । जातिवाद का प्रतिकार कर हरिकेशबल मुनि को अपने संघ में महत्त्व दिया । मानव मात्र की एकता पर बल दिया।
द्रव्य-भाव की अपेक्षा से अहिंसा की सूक्ष्म मीमांसा जैन दर्शन की मौलिक स्फुरणा है । एतद्विषयक अहिंसा के चार विकल्प बतलाये
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'द्रव्यतः अहिंसा भावतः अहिंसा । द्रव्यतः अहिंसा भावतः हिंसा ।
द्रव्यतः हिंसा भावतः अहिंसा ।
द्रव्यतः हिंसा भावतः हिंसा । 85
द्रव्यतः और भावतः अहिंसा के प्रतिपादन से इसका सूक्ष्म रूप प्रकट हुआ जो अहिंसा के विकास
का प्रतीक है। अहिंसा का दिखाऊ विस्तार तो स्वल्प प्रयत्न से ही हो जाता है, किंतु यथार्थ में उसका विकास होना प्रयत्नजन्य उपलब्धि है ।
जैन दर्शन में अहिंसा का प्रतिपादन अनेक दृष्टियों से हुआ है उसमें प्रमुख हैं - निश्चय और
50 / अँधेरे में उजाला