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महाप्रज्ञ ने व्यवस्था के साथ हृदय परिवर्तन को भी अनिवार्य बतलाया। उनकी दृष्टि में आंतरिक परिवर्तन से सुरक्षा एवं व्यवस्था पक्ष सुगम बनता जायेगा।
समग्र चिंतन के आलोक में देखा जाये तो यह नजर आयेगा कि गांधी ने समाजिक चेतना के साथ अद्वैत साधकर उसके परिष्कार, निर्माण का ताना-बाना बुना था। गांधी के अहिंसक समाज की परिकल्पना में अनेक विचारों की स्फुरणा नजर आती है जिसमें प्रमुख है-सर्वोदय समाज, अन्त्योदयविचार, ग्राम-स्वराज, राम-राज्य, समाजवाद आदि। सभी का लक्ष्य अहिंसा प्रधान आदर्श समाज का निर्माण करना था। उनकी कल्पना का अहिंसक समाज हिंसा के दौर से जूझते मानव समाज का प्रेरणा प्रदीप बनकर पथ-प्रशस्त कर सकता है।
आचार्य महाप्रज्ञ के अहिंसक समाज प्रारूप को समग्र दृष्टि से देखें तो उसमें सामयिक सच्चाई का समाकलन है। वर्तमान की प्रमुख आवश्यकता है-अहिंसा। जिस समाज में हिंसा ही हिंसा है, उस समाज में न रोटी-पानी की सम्यक् व्यवस्था होती है और न शिक्षा और चिकित्सा की। अहिंसा है तो अन्य व्यवस्थाएं भी समीचीन होंगी। अहिंसा और हिंसा दोनों के उपादान व्यक्ति के भीतर विद्यमान है। अहिंसा का विकास करना है तो हिंसा की चेतना का रूपान्तरण आवश्यक है। जब चेतना का रूपान्तरण होता है, असंभव लगने वाला कार्य भी संभव लगने लग जाता है। तभी अहिंसक समाज, स्वस्थ समाज और संस्कारक्षम समाज का आदर्श आकार लेता है।
समाहार के तौर पर देखा जाये तो मनीषी द्वय ने अहिंसक समाज के संबंध में जो विचार रखे हैं उनमें समानता और नवीनता की युति है। गांधी ने जहां व्यवस्था पक्ष के परिवर्तन पर बल दिया वहीं महाप्रज्ञ ने व्यवस्था के साथ व्यक्ति परिवर्तन पर भी बल दिया। उनका यह मंतव्य रहा कि जब तक व्यक्ति की चेतना नहीं बदलेगी समाज का ढाँचा बदल नहीं सकता। अतः व्यवस्था
और व्यक्ति दोनों का साथ-साथ परिवर्तन होगा तभी अहिंसक समाज का सपना साकार हो सकता है। अपेक्षा है मनीषियों के विचारों को संयुक्त रूप से यथार्थ के धरातल पर क्रियान्वित किया जाए ताकि अहिंसक समाज रचना का सपना साकार बन सके।
अहिंसक समाज : एक प्रारूप | 249