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________________ दया अहिंसा का एक बहुत व्यावहारिक प्रयोग है । जिस व्यक्ति में दया आ गई वह दूसरों को सता नहीं सकता, कष्ट नहीं दे सकता। दूसरे का कष्ट सहन भी नहीं कर सकता । अधिकांश समस्याएं निर्दयता के कारण पैदा होती हैं। जिस व्यक्ति के मन में दया नहीं है, वह समस्या पैदा कर रहा है। अगर एक दया का विकास हो जाए, फिर बहुत सारी समस्याएं समाप्त हो जाएगी। 214 यह अहिंसा विकास की महत्वपूर्ण कड़ी है जो वैयक्तिक और सामाजिक उभय पथ को प्रशस्त बनाती है । अहिंसा के विकास की प्रक्रिया अनुभव के आलोक में विकसित की गयी है। इसके विकास की पहली शर्त है-हृदय परिवर्तन । प्राचीन काल से लेकर आज तक हृदय परिवर्तन का अपना मूल्य है। हिंसा में विश्वास करने वाले लोग भी इस बात पर बहुत बल देते हैं । जब तक 'ब्रेनवाश' नहीं किया जाता, तब तक आदमी को बदला नहीं जा सकता। महाप्रज्ञ के शब्दों में- हृदय परिवर्तन समाधान है । मस्तिष्क की धुलाई, मस्तिष्क का परिवर्तन नितांत अपेक्षित है। इसके साथ साधन शुद्धि में विश्वास के माहात्म्य को भी भुलाया नहीं जा सकता । अहिंसा के विकास का दूसरा घटक है-अभय । जब तक अभय का विकास नहीं होगा तब तक अहिंसा की चर्चा ही व्यर्थ है । जो व्यक्ति डरता है, वह कभी अहिंसा को तेजस्वी नहीं बना सकता। 25 अहिंसा का विकास अभयावस्था में ही संभव है । अहिंसा विकास के अवान्तर कारणों में सहिष्णुता, क्षमा, परस्परता का विकास भी जरूरी है। ध्यान का प्रयोग अहिंसा विकास का मौलिक घटक बतलाया । महावीर की भाषा में 'अहिंसा के विकास का एक सशक्त साधन है-धर्म ध्यान ।' जीवन में उसकी संगति अनेक विसंगतियों का उपचार है । व्यापक संदर्भों में की गई अहिंसा विकास की चर्चा जिज्ञासु के लिए आलोक पथ बन सकती है। अपेक्षा एकमात्र सक्रिय संकल्प एवं अभ्यास की है । जीवन की कला बनामः अहिंसा अहिंसा जीवन की प्रयोगशाला में प्रतिष्ठित हो । इस संदर्भ के आचार्य महाप्रज्ञ के व्यापक प्रयत्न मानवता के लिए अनमोल उपहार है । समग्र जीवन की कला के रूप में अहिंसा का आकलन मौलिक है- 'अहिंसा प्रेमपूर्ण, शांतिमय और सरल जीवन जीने की कला है।' अहिंसा वर्तमान में शान्त जीवन जीने की प्रेरणा है। जो जीवन को आलोकित करने वाला अक्षय स्रोत है । पर जिसका अपने क्रोध पर, अहं पर, अपने छल-कपट पर, लोभ पर, भय पर, वासना आदि पर नियंत्रण नहीं होता, वह जीने की कला नहीं जान सकता । वह स्वयं दुःखी जीवन जीता है और दूसरों को भी दुःखी बनाता है। हम अपने संवेगों पर नियंत्रण कर सकें, उन्हें बेकाबू न होने दें तो समस्या कभी पैदा नहीं होगी । यह नियंत्रण का अभाव ही सारी समस्या की जड़ है। जीने की कला का सबसे अच्छा सूत्र अहिंसा और मैत्री का भाव है। 216 इसे आत्मसात् करने वाला व्यक्ति जीवन की पवित्रता को पा लेता है । अहिंसा जीवन के हर पड़ाव में उपयोगी है। अहिंसा नहीं होती है तभी तनाव पैदा होते है, तभी पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याएं खड़ी होती है। शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए इन्द्रिय निग्रह आवश्यक है । आज धार्मिक लोग आत्मा, परमात्मा, ईश्वरीय चेतना, मोक्ष आदि की बड़ी-बड़ी बातें तो करते हैं पर अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं होता है तो आदमी अपने तनावों से मुक्त नहीं हो पाता है । विमर्श के संदर्भ में तनाव मुक्त, शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए अहिंसा जीवन में समरस बनें, यह अत्यंत जरूरी है। आचार्य महाप्रज्ञ का अहिंसा में योगदान 101
SR No.022865
Book TitleAndhere Me Ujala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaralyashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2011
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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