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________________ (४) एकत्व भावना मेरी आत्मा अकेली है, सभी संयोग वियोग में बदलने वाले हैं। इस भावना से आत्म- प्रतीति दृढ़ होती है । ( ५ ) अन्यत्व भावना - शरीर, कुटुम्ब, जाति, धन-वैभव आदि से मैं अलग हूँ, ये मेरे नहीं हैं, मै इनका नहीं हूँ ऐसी भावना करना । इस प्रकार की भावना करने से भेद विज्ञान दृढ़ होता है । (६) अशुचि भावना यह शरीर अशुचिमय है, रक्त आदि निन्द्य और घृणास्पद वस्तुओं से भरा है, इसकी उत्पत्ति भी घृणित पदार्थों से हुई है, इस प्रकार का चिन्तन करना । इससे शरीर के प्रति ममत्व क्षीण होता है । - (७) आस्रव भावना आस्रव के अनिष्टकारी व दुःखद परिणामों पर चिन्तन करना । कर्मों का आगमन किन-किन कारणों से होता है, उन पर विचार करके उनके कष्टदायी रूप का चिन्तन करना । इससे असंयम से अरुचि होती है । (८) संवर भावना दुःखद पापास्रवों को रोकने - निरोध करने का एवं सम्यक्त्व प्राप्ति आदि उपायों का चिन्तन करना । इससे संयम की रुचि जागृत होती है। - ( ९ ) निर्जरा भावना - कर्मों को क्षय करने के उपायों का, उनके स्वरूप का बार-बार अनुचिन्तन करना । इससे तप करने का सामर्थ्य आता है। (१०) लोक-स्वरूप भावना तत्त्व- ज्ञान की विशुद्धि के लिए विश्व के वास्तविक स्वरूप का बार-बार चिंतन करना । इससे लोकातीत होने की, लोक से सम्बन्ध तोड़ने की भावना जागृत होती है। (११) बोधि- दुर्लभ भावना सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र इन रत्नत्रय रूप बोधि की प्राप्ति जीव को दुर्लभ है, इस प्रकार बार-बार विचार करना । इससे संवेग जागृत होता है। - (१२) धर्म - भावना - श्रुतधर्म, चारित्रधर्म आदि का अथवा रत्नत्रय रूप धर्म का बार-बार चितंन करना । इससे विभाव से विरक्ति तथा स्वभाव में अनुरक्ति होती है। चारित्र पाँच हैं: : उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २८ गाथा ३२-३३ में पांच चारित्र कहे हैं : (१) सामायिक चारित्र प्राणातिपात आदि पाप रूप सावद्य योगों ( प्रवृत्तियों) का त्याग करना, समभाव में रहना सामायिक चारित्र है । आस्रव - संवर तत्त्व [71]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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