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(४) मुक्ति - समस्त दोषों व बंधनों का कारण विषय-सुख का प्रलोभन है। लोभ का त्याग करना, लोभ न करना मुक्ति है।
(५) तप - इच्छाओं का निरोध करना, दोषों व पापों का क्षय करना, कर्मक्षय की साधना करना तप है। इसके अनशनादि बारह भेद हैं।
(६)संयम - मन, वचन और काया की दुष्प्रवृत्तियों का निग्रह करना संयम है। पाँच इन्द्रियों का निग्रह, पाँच हिंसादि अव्रत का निषेध, चार कषायों पर विजय और तीन अशुभ योगों की निवृत्ति ये १७ प्रकार के संयम हैं।
(७) सत्य - असत्य को त्यागना और सत्य का आचरण करना, हित-मितप्रिय बोलना सत्य है।
(८) शौच - मन, वचन, काया की प्रवृत्ति को पवित्र रखना शौच है।
(९) अकिंचनत्व - किसी भी वस्तु में ममत्व बुद्धि न रखना, परिग्रह रहित होना अकिंचनत्व है।
(१०) ब्रह्मचर्य - अब्रह्म का त्याग करना, काम-भोग से विरति होना, आत्मा में रमण करना ब्रह्मचर्य है।
बारह भावनाएँ - जिसका मन से बार-बार चिंतन किया जावे, वह भावना है। भावना बारह हैं - (१) अनित्य, (२) अशरण, (३) संसार, (४) एकत्व, (५) अन्यत्व, (६) अशुचि, (७) आस्रव, (८) संवर, (९) निर्जरा, (१०) लोक, (११) बोधि दुर्लभ और (१२) धर्म भावना। संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -
(१) अनित्य भावना - इन्द्रियों के विषय, धन-यौवन और शरीरादि सभी अनित्य हैं, इस प्रकार चिन्तन करना अनित्य भावना है। इससे आसक्ति मिटती है और विरक्ति उत्पन्न होती है।
(२) अशरण भावना - धन-वैभव, ज्ञातिजन आदि संसार में कोई भी शरणदाता (रक्षक) नहीं है। मृत्यु, बीमारी आदि से कोई भी रक्षा नहीं कर सकता। ऐसा चिन्तन करना अशरण भावना है। इससे स्वालम्बन आता है।
(३) संसार भावना - यह चतुर्गतिक संसार दु:ख से भरा है। इस संपूर्ण संसार के सभी प्राणी दु:खी हैं, कहीं भी सुख नहीं है। इस प्रकार बार-बार चिन्तन करना, संसार भावना है। इस चिन्तन से व्यक्ति की सांसारिक सुखों के प्रति आसक्ति मिटती है।
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जैनतत्त्व सार