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सारांश यह है कि पुण्य के पालन से पाप का प्रक्षालन होता है । १४ जिससे मुक्ति की प्राप्ति होती है । अथवा यों कहें कि पाप तो करने पर ही होता है । जबकि 'पुण्य' पाप के प्रक्षालन से, क्षयोपक्षम भाव से एवं दोषों के त्याग से स्वत: होता है ।
संदर्भ ग्रन्थ
तत्त्वार्थ सूत्र अ ६ सूत्र २ - ३ की राजवार्तिक टीका व अन्य प्राचीन टीकाएँ
१.
२. जयधवल पुस्तक १, पृष्ठ ५ तथा धवल पुस्तक ७, पृष्ठ ९
३. पंचसंग्रह का उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण प्रकरण
३(अ) तत्त्वार्थसूत्र अ. ६ सूत्र ३ की सर्वार्थ सिद्धि टीका में 'रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम्' तत्त्वार्थ सूत्र अ. ६ सूत्र २ - ३ की राजवार्तिक टीका
४.
५.
६.
७.
जय धवल पुस्तक १, पृष्ठ ९६ गाथा ५२
आगमभाषयौशमिकक्षायोपशमिकक्षायिकं भावत्रयं भण्यते । अध्यात्मभाषया पुनः शुद्धात्माभिमुखपरिणामः शुद्धोपयोग - इत्यादिपर्यायसंज्ञां लभते । । समयसार तात्पर्यवृत्ति गाथा ३२०, द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा ४५
८-९-१०-११ भगवती सूत्र शतक ८ उ. ९, शतक ७ उ. ६ तथा तत्त्वार्थसूत्र अ. ६ सूत्र १२ से २४ तक
१२.
धवल पुस्तक १२, पृष्ठ १८
१३. बहुश्रुत पं. श्री समर्थमलजी म.सा., श्री रूपचन्दजी कटारिया आदि के साथ समयसार की गाथा पर विचार ।
१४. मूक माटी में पुण्य प्रकरण, लेखक आचार्य श्री विद्यासागर जी म.सा.
पुण्य : सोने की बेड़ी नहीं, आभूषण है
विषय - कषाय जन्य सुखों की पूर्ति अपने से भिन्न (पर) पदार्थों से होती है । ऐसा सुख भोग विकार है, विभाव है, दोष है । इन्द्रियों के विषय भोग, सम्मान, सत्कार आदि की पूर्ति शरीर, इन्द्रिय, वस्तु, व्याक्ति परिस्थिति बल आदि के आधीन है। अतः विषय- कषाय का भोगी व्यक्ति शरीर, इन्द्रिय, मन, वस्तु व्यक्ति, परिस्थिति, धन-सम्पत्ति आदि का दास या पराधीन हो जाता है, इनसे बंध जाता है । अत: भोग से व्यक्ति शरीर, इन्द्रिय, भोग्य वस्तुओं आदि की पराधीतना में बंधनों में, कारागार में आबद्ध हो जाता है । इस प्रकार पाप बेड़ी लोहे की ही होती है, बेड़ी कहीं पर भी, कभी भी स्वर्ण की नहीं बनायी जाती है । अतः सोने
पुण्य-पाप तत्त्व
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