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* पुण्य के अनुभाग की वृद्धि स्थिति बंध का क्षय करने वाली होती है।
वीतराग केवली के मुक्ति-प्राप्ति के अन्तिम समय जब पाप-पुण्य कर्मों को पूर्ण क्षय होता है तब तक पुण्य का अनुभाग उत्कृष्ट ही रहता है। अंश मात्र मात्र भी क्षय नहीं होता है। केवली समुद्घात से भी उत्कृष्ट अनुभाग में क्षीणता नहीं आती है।१२ पुण्य कर्म के स्थिति-बंध का क्षय पाप कर्म के स्थिति बंध के क्षय के साथ स्वतः होता जाता है, इसके लिए किसी साधना की आवश्यकता नहीं होती
पुण्य कर्म किसी भी गुण का घातक नहीं है। पुण्य कर्म का उदय एवं उसका सदुपयोग आत्मोत्थान में सहायक होता है। यह नियम है कि पुण्य के अनुभाग की वृद्धि से पाप तथा पुण्य दोनों कर्मों के स्थिति बंध (तीन शुभ आयु को छोड़कर) का अपवर्तन होता है, जिससे संसार घटता है। अतः पुण्य का उपार्जन संसार भ्रमण घटाने में सहायक होने से उपादेय है। मनुष्य भव के बिना मुक्ति नहीं मिलती है और मनुष्य भव अनंत पुण्य से ही मिलता है। अतः अनंत पुण्यवान को ही मुक्ति मिलती है। पुण्य का भावात्मक व आंतरिक रूप सरलता, मृदुता, विनम्रता, करुणा आदि गुण हैं। ये जीव के स्वभाव हैं। पुण्य का क्रियात्मक व बाह्य रूप दान, दया, सेवा, स्वाध्याय, सत-चर्चा, सत्-चिंतन आदि हैं। पुण्य का आन्तरिक फल पाप कर्मों का क्षय करना है और पुण्य का बाह्य व आनुषंगिक फल शरीर, इन्द्रिय आदि की उपलब्धि है, पुण्य कर्म प्रकृतियों का उपार्जन है। यह फल न साध्य है न साधना है, अपितु साधना का सहयोगी अंग है। पाप कर्म लोहे की बेड़ी के समान संसार कारागार में आबद्ध करने वाला है,
अतः अकल्याणकारी है, दोष है, दूषण है। * पुण्य कर्म स्वर्णाभूषण (नागल्या) के समान जीवन का शृंगार है शोभास्पद
है। स्वर्ण की बेड़ी नहीं है ।१३
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जैनतत्त्व सार