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________________ की बेडी कहना बेडी शब्द के अर्थ को खोना है। विषय-कषाय आदि पापों का सेवन करनेवाला व्यक्ति अपने सुख ही प्राप्ति के लिये हिंसा, झूठ, शोषण, अपहरण, धोखाधड़ी, कलह, संघर्ष आदि अशोभनीय, अनादरणीय आचरण करता है। अतः दोष दूषण हैं। पाप के विपरीत पुण्य है। क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायों में पापों में कमी होने व इनका क्षय होने से क्षमा, मृदुता, सरलाता, सजनता, विनम्रता, उदारता, वत्सलता आदि गुण प्रकट होते हैं, जिनसे आत्मा पवित्र होती है। दोषोंपापों का क्षय होना, गुणों का प्रकट होना और आत्मा का पवित्र होना ये तीनों युगपत् होते हैं, इन तीनों में एकता एवं अभिन्नता है। दोषों व पापों का क्षय होना, गुणों का प्रकट होना, आत्म-स्वभाव का प्रकट होना है, आत्म धर्म है और आत्मा का पवित्र होना पुण्य है। इस प्रकार पाप का क्षय, धर्म और पुण्य ये तीनों एक ही अवस्था के रूप हैं। पाप-कषायों के क्षय व कमी से क्षमा, मृदुता, सरलता आदि आत्म-गुणों का प्रकट होना आत्मा के लिए शोभास्पद है तथा इन गुणों का क्रियात्मक रूप, सहृदयता, विनम्रता, संवेदनशीलता, मधुरता, सज्जनता, उदारता, परोपकार, सेवा आदि सद्प्रवृतियाँ व्यक्ति के जीवन के लिए शोभास्पद है तथा इन सद्प्रवृत्तियों से सुंदर समाज का निर्माण होता है, जो समाज के लिए शोभास्पद है। इस प्रकार पुण्य आत्मा, जीवन एवं समाज इन सबके लिये शोभास्पद होने से अलंकार है, आभूषण है, बेड़ी नहीं। भूषण है, दूषण नही। पुण्य को आभूषण की उपमा देना भी एक अर्थ में अपूर्ण हैं। कारण कि आभूषण शरीर पर सदैव धारण नहीं किया जाता है तथा शरीर से आभूषण पृथक होता है। अतः यह उपमा सद्प्रवृत्ति रूप पुण्य पर ही घटित होती है। आत्म-गुणों के प्रकट होने रूप पुण्य पर घटित नहीं होती है। आत्म-गुण आत्मा के अभिन्न अंग है, जो आत्मा से अलग नहीं होते हैं और सद्प्रवृत्ति यदा-कदा होती है, निरन्तर नहीं है। अतः आत्मगुण तो शरीर के समान हैं और सद्प्रवृत्ति आभूषण के समान है। आशय यह है कि बेडी कारागार की पराधीनता की द्योतक है। कारागार उसी को मिलता है जो अपराधी व दोषी है। कारागार की श्रेणी में भेद व भिन्नता का कारण अपराधी के अपराध में भेद व भिन्नता होना है। परन्तु कारागार किसी भी श्रेणी का हो, वह अपराधी को ही मिलता है, निरपराधी को नहीं। अतः बेड़ी लोहे की हो अथवा स्वर्ण की हो, वह दोष व अपराध की अर्थात् पाप की ही सूचक है, पुण्य की नहीं। [46] जैनतत्त्व सार
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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