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जह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोई । तण्हाछुहाविमुक्को, अच्छेज्ज जहा अमियतित्तो ॥ इय सव्वकामतित्ता, अतुलं निव्वाणमुवगया सिद्धा ।
सासयमव्वाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥ सिद्धतिय बुद्धत्तिय, पारगय त्ति य परंपरगय त्ति ।
उम्मुक्ककम्मकवया, अजरा अमरा असंगा य॥ णिच्छिणसव्वदुक्खा, जाइजरामरणबंधणविमुक्का । अव्वाबाहं सुक्खं, अणुहोंति सासयं सिद्धा ॥
औपपातिक सूत्र - गाथा सं. 18, 19, 20, 21
अर्थात् जिस प्रकार सर्व प्रकार से अभीप्सित गुण वाले भोजन को करके मनुष्य भूख एवं प्यास से मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार सिद्ध अमृत से तृप्त होकर विराजते हैं। वे अतुल निर्वाण को प्राप्त कर सब कालों में तृप्त रहते हैं तथा शाश्वत एवं अव्याबाध सुख को प्राप्त कर सुखी रहते हैं । वे सिद्ध, बुद्ध, पारंगत और परम्परागत (परम्परा से पार गये हुए) कहलाते हैं । कर्मदल से उन्मुक्त होकर वे अजर, अमर एवं असंग हो जाते हैं, सब दुःखों से रहित होकर वे जन्म, जरा, मरण एवं बन्धन से मुक्त हो जाते हैं तथा वे सिद्ध अव्याबाध एवं शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं।
साधना में महत्त्व है वीतरागता का । जो भी वीतराग पथ है, जिससे राग गलता है, घटता है, दूर होता है तथा वीतरागता की ओर प्रगति होती है, वही साधना है, वही मोक्षमार्ग है। वीतराग मार्ग नैसर्गिक नियमों पर आधारित है, अतः यह सार्वजनीन, सार्वदेशिक, सार्वकालिक सत्य है, यह किसी सम्प्रदाय, जाति, वर्ण, वाद व परम्परा से बंधा नहीं है। जो भी इसे अपनाता है उसका कल्याण होता है, उसे तत्काल शांति, मुक्ति, प्रसन्नता की अनुभूति होती है। इसके विपरीत जो साधना वीतरागता के विरुद्ध हो, वीतरागता की ओर न बढ़ाती हो, राग-निवृत्ति में सहायक न हो, रागउत्पादक व रागवर्द्धक हो, वह साधना नहीं है, विराधना है । वह त्याज्य है।
साधना में मूल्य वीतरागता का है, किसी साधना - विशेष का नहीं । जिससे राग, द्वेष, मोह मिटे, वीतरागता का पोषण हो वही साधना है । वही स्वीकार्य है। अतः साधना-पथ में जो बात जिस किसी को जहाँ कहीं भी वीतरागता को पुष्ट
मोक्ष तत्त्व
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