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विषय-भोग के सुख को वह स्थायी, सुन्दर व सुखद समझता था वह सुख नष्ट हो गया, अशुचि में, सड़न - गलन में, विध्वंसन में बदल गया, एवं उसके संयोग का सुख वियोग के दुःख में बदल गया। प्रत्येक विषय - सुख की यही यथार्थता है। इसका यथार्थ ज्ञान ही श्रुतज्ञान है । मानव अपने इस यथार्थ ज्ञान का, श्रुतज्ञान का आदर कर विषय-सुखों को त्यागने का पुरुषार्थ कर मुक्त हो सकता है।
नवीन विषय-सुखों के त्यागने का पुरुषार्थ करना संवर- संयम की साधना है और प्राप्त विषय-सुखों की दासता से मुक्त होने के लिए उनसे सम्बन्ध-विच्छेद करना, असंग (निःसंग) होना ही तप साधना है। नवीन - विषय - सुखों के त्याग (संवर) से नवीन कर्मों का बंध नहीं होता है और तप से विद्यमान सत्ता में स्थित कर्मों का बंधन टूटकर उनकी निर्जरा हो जाती है। कर्मों के बंधनों का सर्वांश में नाश हो जाना ही मुक्त होना है । तप का लक्ष्य है शरीर, संसार, कषाय, कर्म का व्युत्सर्ग करना। संयम या संवर का पालन तप की भूमिका है। संवरशील-संयम की भूमिका में ही तप रूप वृक्ष उत्पन्न होता व पनपता है, जिसकी पूर्णता ध्यान है। ध्यान से शरीर, संसार, कषाय व कर्म से अतीत होने का सामर्थ्य आता है। इनसे अतीत होना ही मुक्त होना है।
तात्पर्य यह है कि मानव - जीवन की सार्थकता व सफलता मुक्त होने में ही है । मानव जन्म पाकर भी मुक्त नहीं होना अपना घोर अहित करना है, मानव जीवन व्यर्थ खोना है। मुक्त होने में मानव मात्र समर्थ एवं स्वाधीन है, वह जिस क्षण चाहे, जब चाहे, जहाँ चाहे उसी क्षण वहीं मुक्त हो सकता है। कारण कि मुक्त होने के लिए विषय - सुखों की नश्वरता, पराधीनता, दासता, वियोग, अशुचित्व, असारता का निजज्ञान- श्रुतज्ञान मानव मात्र को स्वतः प्राप्त है । गुरु और ग्रन्थ के ज्ञान की सार्थकता निजज्ञान - श्रुतज्ञान के आदर में ही निहित है । अनित्य, अशरण, संसार आदि किसी एक भावना के चिन्तन से विषय - सुखों की व्यर्थता को जानकर इनके प्रति विरक्त होकर, अनन्त जीव मुक्त हुए हैं।
मुक्ति- अमरत्व-निर्वाण
साधना का लक्ष्य या फल मुक्ति, अमरत्व व निर्वाणरूप साध्य को प्राप्त करना है, जिसका उपाय है वीतरागता अर्थात् राग का त्याग । विनाशी के राग के त्याग से अमरत्व, 'पर' के राग के त्याग से मुक्ति, संस्कार (कर्म) के राग के त्याग से निर्वाण की अनुभूति या उपलब्धि होती है। जैसा कि मुक्त (सिद्ध) जीवों का वर्णन करते हुए जैनदर्शन में कहा है
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जैनतत्त्व सार