SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करने वाले तथ्य के रूप में ज्ञात हो उसे ग्रहण करना चाहिए और जो वीतरागता के विपरीत लगे उसे असाधन समझकर छोड़ देना चाहिये । साधना में भी अनेक मतभेद, विचारभेद, अर्थभेद, समझभेद हो सकते हैं। उन्हें एक ओर रखते हुए साधक को केवल वीतरागता का समर्थन करने वाले सूत्रों को ही अंगीकार करना चाहिये; इसी में कल्याण है, निर्वाण है, विमुक्ति है । वैज्ञानिक विकास के साथ भोगों की विपुल सामग्री उपलब्ध होती जा रही है। भोगेच्छा की वृद्धि के साथ लाभ, लोभ, संग्रह, मान, मद, स्वार्थपरता, संकीर्णता, हृदयहीनता, कठोरता, अकर्मण्यता, अकर्त्तव्य आदि दोषों की भयंकर रूप में वृद्धि होती है। जिसके परिणामस्वरूप अभाव, तनाव, दबाव, द्वन्द्व, दीनभाव, हीनभाव, नीरसता, निर्बलता, असमर्थता, प्राणशक्ति का ह्रास, संघर्ष, शारीरिक और मानसिक रोग आदि दुःखों की भयावह अभिवृद्धि हो रही है जो मानवजाति के अस्तित्व को खतरे में डाल सकती हैं। अतः मानवजाति को बचाने के लिये ऐसे मार्ग की आवश्यकता है जो निज अनुभव व ज्ञान पर तथा निसर्ग व कारण- कार्य के नियमों पर आधारित हो, ऐसा मार्ग मोक्ष मार्ग है । समस्त दुःखों से सदा के लिए सर्वथा मुक्त होना, अविनाशी परमानन्द का अनुभव करना है । यह तभी सम्भव है जब दुःखों के कारण रूप 'दोषों- पापों' का त्याग कर पूर्ण निर्दोष हो, कर्मों का क्षय किया जाय। इसके लिए शुभयोग, संवर एवं निर्जरा की साधना आवश्यक है । जिससे आत्मा निर्दोष हो, पवित्र हो, वह पुण्य है। नवीन कर्मों के आस्रव व बंध का निरोध करना अर्थात् नवीन कर्म-बंध को रोकना संवर है और पूर्व उपार्जित पाप कर्मों का क्षय करना निर्जरा है । निर्जरा से कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना मोक्ष है । प्राणिमात्र की माँग दु:ख - मुक्ति और सुखप्राप्ति की है, परन्तु दुःख न चाहने पर भी आ जाता है और सुख को सुरक्षित रखना चाहने पर भी चला जाता है। दु:ख के आने व सुख के जाने पर किसी का नियन्त्रण नहीं है। जिस पर किसी का नियन्त्रण नहीं है, जो प्रकृति से स्वतः आ जा रहा है वह किसी के लिए हानिकारक नहीं हो सकता। प्रकृति का यह कार्य मानव की भूल मिटाने के लिए है। वह भूल है अपने स्वभाव के, माँग के या साध्य के विपरीत कार्य करना । सभी मानवों को स्वभाव से ही शान्ति, मुक्ति (स्वाधीनता) प्रीति, पूर्णता, अमरत्व, निर्भयता, निश्चिंतता इष्ट है। किसी को भी अशान्ति, पराधीनता (बंधन), द्वेष, अभाव, विनाश, भय, [236] जैतत्त्व सा
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy