SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारण ज्ञानावरण में तरतमता होती है तथा ज्ञानावरण के कारण ज्ञान का प्रकटीकरण प्रभावित होता है। ज्ञान होना जीव का लक्षण है। जीव कुछ न कुछ अवश्य जानता है। अजीव जानने का साधन तो बन सकता है, किन्तु वह ज्ञाता नहीं होता। कम्यूटर अनेक प्रकार के गणितीय प्रश्नों को हल करने में, ई-मेल द्वारा समाचार प्रेषित करने में इण्टरनेट के माध्यम से दुनियाभर की सूचना को प्रदर्शित करने में सहायक बनता है, किन्तु वह भी एक उपकरण ही है, ज्ञाता नहीं। ज्ञाता तो जीव ही होता है। बाह्य जगत् का ज्ञान आभिनिबोधक ज्ञान अथवा मतिज्ञान है जो इन्द्रिय एवं मन की सहायता से होता है अर्थात् इन्द्रियाँ इनमें करण बनती हैं। मतिज्ञान का व्यापक है। यह अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारण तक ही सीमित नहीं होता, अपितु स्मृति प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं अनुमानजन्य ज्ञान भी मतिज्ञान स्वरूप ही है। बुद्धिजन्य ज्ञान भी मतिज्ञान है तथा जातिस्मरण ज्ञान को भी मतिज्ञान की श्रेणि में लिया गया है। मतिज्ञान के द्वारा शब्द, रूप, रस, गंध एवं स्पर्श युक्त पदार्थों का तो ज्ञान होता ही है, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, जीवास्तिकाय एवं परमाणुसदृश सूक्ष्म पुद्गलों का ज्ञान भी मतिज्ञान के अन्तर्गत ही आता है, क्योंकि इसको जानने में बुद्धि एवं तर्क की अपेक्षा होती है। अब प्रश्न है कि मतिज्ञान पर आवरण किस प्रकार आता है? मतिज्ञान के प्रकटीकरण में जो सहायक करण हैं उनके निर्माण का सम्बन्ध तो नामकर्म से है। इन्द्रियादि की रचना नामकर्म से होती है, किन्तु उनमें जानने की क्षमता का आधार दर्शनावरण एवं ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होता है। मतिज्ञानावरण कर्म का उदय होने पर जीव में ऐन्द्रियक ज्ञान के स्तर पर, स्मृति, तर्क, चिन्तन एवं बौद्धिक ज्ञान के स्तर पर रुकावट उत्पन्न हो जाती है। लेखक का यह मन्तव्य है कि बाह्य वस्तुओं अथवा विषयों का कितना ज्ञान हुआ है, इससे मतिज्ञान में कोई विशेषता नहीं आती। श्रुतज्ञान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ज्ञान है। स्वभाव-विभाव, गुण-दोष एवं हेय उपादेय का स्वाभाविक ज्ञान ही श्रुतज्ञान है। यह इन्द्रिय का विषय नहीं है, यह जीव को स्वतः प्राप्त वह ज्ञान है जिससे जीव को शान्ति, स्वाधीनता, अमरत्व, पूर्णता, प्रसन्नता आदि गुण इष्ट होते हैं। वस्तु, शरीर आदि की नश्वरता, संसार की अशरणता आदि का बोध श्रुतज्ञान का स्वरूप है। इसे विवेक भी कहा जा सकता है। ज्ञान का सच्च स्वरूप श्रुतज्ञान ही है। यही केवलज्ञान में सहायक है। श्रुतज्ञानी बंध तत्त्व [215]
SR No.022864
Book TitleJain Tattva Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2015
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy